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'मूकमाटी' : एक उत्कृष्ट काव्यकृति
डॉ. रामेश्वर प्रसाद द्विवेदी
आचार्य विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' का मैंने अध्ययन किया और पाया कि इसकी गणना उत्कृष्ट हिन्दी काव्य कृतियों में होने योग्य है ।
जहाँ तक सिद्धान्तों के प्रतिपादन का सम्बन्ध है, वह प्राय: पूर्वाग्रह अथवा पूर्व नियोजन के कारण काव्यश्री का मारक सिद्ध होता है तथा अभिव्यक्ति को शुष्क गद्यात्मक बना देता | जो बात या विचार गद्य में सविचार विश्लेषित हो सकता है, उसके लिए काव्य कलेवर देने की क्या आवश्यकता ? काव्य तो अनायास स्फूर्त भावों की सरस अनुभूतिमय अभिव्यक्ति को कहते हैं । यदि कहीं अनुभूति की तीव्रता अभावग्रस्त है अथवा अभिव्यक्ति श्रमजन्य है तो समान परिमाण में ‘काव्यानन्द' बाधित होगा। मुझे प्रसन्नता है कि 'मूकमाटी' की मुखरता में कविता प्रायः आद्यन्त अकुण्ठित और निर्बाध है । निस्सन्देह शिल्प भाव सम्पत्ति की तुलना में कुछ कमज़ोर है, किन्तु शिल्प की कमज़ोरी वस्तु सम्पन्नता में दब जाती है और समग्रतः 'मूकमाटी' एक सुन्दर एवं सराहनीय कृति सिद्ध होती है ।
कवि ने स्वयं संक्षेप में कृति का परिचय दिया है। उनके अनुसार 'मूकमाटी' लौकिक अलंकारों पर अलौकिक अलंकारों के प्रयोग की चेष्टा है । शुद्ध चेतना के परिप्रेक्ष्य में भी अवतरण घटित होने पर वह किंचित् अशुद्ध होगा, अपरिहार्य है यह; पर कवि ने प्रयास किया है कि ऐसा न हो और हो तो अल्पातिअल्प हो । कवि का प्रयास स्तुत्य है । शुद्ध सात्त्विक पर बल देना चाहे ठीक है, पर है मायामय । चैतन्य की शुद्धता तो केवल मात्र ब्रह्म अव्यक्त मौलिक रूप में ही सम्भव है। सतोगुण भी अन्ततः मैल है - माटी है, लेकिन मूकता की असीमता के पार कवि जाता है तो वह योगी हो जाता है और वहाँ से प्रत्यावर्तित होता है तो वह शापित अस्तित्व जीने को विवश है । आचार्यश्री का कवि भी शाप की अनिवार्यता से परे नहीं है, सम्भव ही नहीं था ।
आचार्यश्री ने 'मानस तरंग' में कुछ कण रखे हैं। उनके सम्बन्ध में इन पंक्तियों के लेखक की प्रतिक्रिया यों है: - 'क्या आलोक के.... ?' अन्तिम सत्य यह कि कर्म होता है कर्ता कोई नहीं; न मैं, न तुम और न वह । सहसा स्फूर्त इच्छा मात्र रूप ले लेती है, वहाँ कर्म - अकर्म द्वन्द्व रहित है।
- 'क्या चक्र के बिना...?' हाँ ! बल्कि सुन्दरतर कुम्भ के रूप में भी । दण्ड, कील आदि सब इच्छा के खेल हैं । - 'क्या बिना इच्छा...?' ठीक यही बात मुख्य है । इच्छा के बिना शून्य सृष्टि नहीं बन सकती ।
- ' क्या... इच्छा निरुद्देश्य होती है ?' वह सोद्देश्य - निरुद्देश्य से परे इच्छा मात्र होती है ।
तात्पर्य यह कि आचार्यश्री के विचार कण उत्तेजक हैं और पाठक के मानस को तरंगायित करते हैं। यह उनके विचार की क्षमता है । कविता में ढलकर यही क्षमता रसमय न हो तो गतिमयता के बीच शुष्कता, अग्निस्फुलिंग और अन्तत: अंगार हो जीवन को जला देती है। 'मूकमाटी' न जलती है, न जलाती है। वह मानस को जीवन्त तथा सशक्त बनाती है और कोमल कलित भी ।
श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने अपने 'प्रस्तवन' (पृ. XVII) में कहा है : "यह कृति अधिक परिमाण में काव्य है या अध्यात्म, कहना कठिन है ।" सत्य यह कि काव्य वहीं दिव्यता पाता है जहाँ अध्यात्म के मर्मोत्स से समन्वित होता है । 'मानस' में काव्यांश कम ही हैं, कहीं-कहीं ही तुलसी के कथन मोहक काव्य हैं, अन्यथा 'मानस' सिद्धान्त कथनों का पद्यात्मक (छन्दोबद्ध) संकलन ही अधिक लगता है । जहाँ अध्यात्म के तत्त्व मार्मिक स्वर प्राप्त कर सके हैं, 'मानस' मोहक बना है । 'मूकमाटी' में अध्यात्म के तत्त्व प्रायः मनोरम हैं । यह भिन्न बात है कि कहीं-कहीं तत्काल लचर