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मूकमाटी-मीमांसा :: xxxv
भी प्रतीक या रूपक पद्धति पर कथा है और कथा के भीतर कथा है, जिनके सहारे जिन-सिद्धान्तों का आख्यान है । विशेष स्मरणीय यह है कि ये सिद्धान्त अपनी प्रकृति में साम्प्रदायिक होकर भी सार्वभौम प्रकृति के हैं, इसीलिए वह साम्प्रदायिक रचना नहीं, काव्य है । इसमें भी प्रकृति के परिवेश में तपी धरती पर नग्न-पाद आम्रपादप खड़ा है, दाता के रूप में, पात्र की प्रतीक्षा है । उद्यमी पथिक आता है, पर दाता में दाता होने का अहम् उभरता है जो अयाचक पथिक को खटकता है । वह भी मान-सम्मान के साथ दान चाहता है । मोक्षमार्ग में दोनों की वृत्ति बाधक है। इस संवाद - मौन संवाद - को वहाँ बैठा हुआ निस्संग तोता सुनता है, जो न उपार्जित फल का दाता है और न याचक । दान का फल पाना चाहता है, पर श्रमपूर्वक उपार्जन किए बिना । निस्संग भाव से जब वह अपनी इस वृत्ति का मानस साक्षात्कार करता है तो अपने अकर्मण्य जीवन पर ग्लानि से भर उठता है और चाहता है कि वह भी श्रमी बने, तपस्वी बने एवं फलोपार्जन करे । इस बीच फल में निरहंकार आत्मदान का भाव जगता है। वृक्षपुत्र सुपुत्र पवन की सहायता चाहता है। उसे भी पिता की वृत्ति पर खेद होता है । फल वृन्त-बन्धन से मुक्त होने की कामना में पवन की सहायता प्राप्त करता है और ससम्मान तपस्वी पथिक के पात्र का आह्वान करता है, फिर जो मुक्ति फल को चाहिए, वह मिल जाती है । एक प्रगीत में यह अन्योक्ति सूक्ति मुक्तिका की भाँति ढली हुई है । कितना काव्योचित काव्यरूप है ! अनुभूति के जल में स्नात होने से इसमें प्रभावी प्रबोध-उत्पादन की क्षमता है । 'मूकमाटी' ऐसे ही प्रगीत मुक्तकों की पीठिका पर आकार पाती है । रामचन्द्र शुक्ल ने कविता क्या है' शीर्षक निबन्ध में प्रकृति के ऐसे रमणीय व्यापारों से मार्मिक तथ्य निकालने वालों की प्रतिभा की प्रशंसा की है। उन्होंने जैसे 'कामायनी' को प्रगीतों का समुच्चय कहा है, उसी प्रकार 'मूकमाटी' को भी संवाद-मुक्तकों का समुच्चय कहा जा सकता है - इस व्यतिरेक के साथ कि उन संवाद-मुक्तकों में घट की आत्मकथा आद्यन्त सूत्र की भाँति अनुस्यूत है। इस प्रकार डॉ. माचवे की प्रथम जिज्ञासा सहज ही समाहित हो जाती है। सम्प्रेषणवादी का पक्ष-आत्माभिव्यक्तिवादी का पक्ष
सम्प्रति, दूसरी जिज्ञासा देखी जाय । रचना आत्माभिव्यक्ति है या सम्प्रेषण ? रचना का सम्बन्ध चेतना की अज्ञात गहराइयों से जोड़ने वाला मनोवेत्ता तो यही मानता है कि रचना हो जाती है, 'की' नहीं जाती। वह आत्माभिव्यक्ति है, एक विस्फोट है, जो चेतना के अज्ञात स्तर से होता है । ज्ञानचेतना के स्तर का अहंकारमूलक कर्तृत्व या तो प्रसुप्त रहता है अथवा समर्पित होकर माध्यम बन जाता है और जो कुछ होना है, होता रहता है । दूसरा पक्ष मानता है कि चेतना का उत्स समाज है । वह समाज में सत्ता का आसादन करती है और जिस 'भाषा' का सहारा पकड़ती है, वह समाज की ही देन है। अत: सम्प्रेषण भी रचयिता के स्वभाव में है । उसका 'स्व' इतना विकसित और व्यापक है कि उसमें समस्त 'पर' समाहित हैं। रचयिता का व्यक्तिहृदय लोकहृदय होता है, उसकी निजी अनुभूति में सर्वसामान्य की हिस्सेदारी होती है । इसीलिए कहता है वह 'स्वान्तः सुखाय', पर निमग्न होता है सारा लोक । संस्कार पाता है सारा पाठक समाज। अनेकान्तवादी समन्वयी दृष्टि
रचयिता के हृदय का भार तभी उतरता है जब वह औरों में संवाद पाता है । मतलब प्रयोजन की दृष्टि से 'प्रीति' और 'व्युत्पत्ति' की भाँति 'आत्माभिव्यक्ति' और सम्प्रेषण में भी आत्यन्तिक विरोध नहीं है । आत्माभिव्यक्ति सामाजिक क्रिया है और सामाजिक में ही चरितार्थ होती है। अत: आत्माभिव्यक्ति कहीं मूल में ही सम्प्रेषण है, सम्बोध्य के लिए है। लोक उसके लक्ष्य में अज्ञातभाव से ही सही, अवश्य विद्यमान है। महाराजश्री लोक-मंगल की भावना से तो परिचालित हैं ही, उन सिद्धान्तों को जिया है उन्होने, अत: अनुभूति परिचालित भी हैं।
"प्रखर चिन्तकों दार्शनिकों/तत्त्व-विदों से भी ऐसी/अनुभूति-परक पंक्तियाँ प्राय: नहीं मिलती जो/आज अग्नि से सुनने मिलीं।" (पृ. २८७)