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मूकमाटी-मीमांसा :: 287 सहयोग अपरिहार्य है । पुरुष के पाप कर्म पुण्य में परिवर्तित हो सकें, इसके लिए स्त्री प्रयत्नशील होती है । वह पुरुष की वासना को संयत करती है । उसकी उपासना को स्त्री संगत बनाती है । कवि का कथन है :
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'... काम पुरुषार्थ निर्दोष हो, / बस, इसी प्रयोजनवश वह गर्भ धारण करती है। " (पृ. २०४ )
स्त्रियों के गुणों को तो स्वयं स्त्री शब्द ही गुनगुना रहा है :
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''स्' यानी सम-शील संयम / 'त्री' यानी तीन अर्थ हैं
धर्म, अर्थ, काम - पुरुषार्थों में / पुरुष को कुशल - संयत बनाती है सो. स्त्री कहलाती है। " (पृ. २०५ )
नारी के अनेक रूप हैं- प्रायः सब मोहक एवं महनीय । 'सुता' या 'दुहिता' भी उसी का रूप है । आधुनिक जीवन में पुत्राकांक्षा भले ही प्रबल हो किन्तु सुता के सेवा-भाव और उसके शील-स्वभाव पर सब मुग्ध होते हैं । कवि 'सुता' शब्द की व्याख्या में कहता है :
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'सु' यानी सुहावनी अच्छाइयाँ / और / 'ता' प्रत्यय वह भाव - धर्म, सार के अर्थ में होता है / यानी, सुख-सुविधाओं का स्रोत
सो - / 'सुता' कहलाती है ।" (पृ. २०५)
इसी प्रकार ‘दुहिता' में कवि ने दो हित निहित माने हैं। एक तो वह 'अपना हित स्वयं ही कर लेती है' और
दूसरे :
" पतित से पतित पति का जीवन भी/हित सहित होता है, जिससे वह दुहिता कहलाती है । " (पृ. २०५ )
दुहिता अनेक प्रकार से 'दुहिता' (दो ओर से हित साधन करने वाली ) कही गई है। वह है :
" उभय - कुल मंगल - वर्धिनी / उभय-लोक - सुख - सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका ।" (२०६)
स्त्री का एक नाम 'अंगना' भी है। स्त्री का यह नाम उसके मधुर-मोहक अंगों के नाते ही सार्थक है । कवियोंसाहित्यकारों ने उसमें प्राय: इसी अर्थ की व्यंजना की है। इस बात पर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने भी ध्यान दिया है। एक नारी पुरुष को केवल अंग-सुख ही नहीं देना चाहती। वह इससे बढ़कर 'चिरन्तन शाश्वत' और 'निरंजन भास्वत' देना चाहती है । अंगना के सान्निध्य में पुरुष प्राय: अनंग-संग से 'अंगारित' हो उठता है । इसीलिए 'मूकमाटी' की अंगना की स्पष्टोक्ति है :
“मैं ‘अंगना' हूँ/परन्तु,/ मात्र अंग ना हूँ / और भी कुछ हूँ मैं..!" (पृ. २०७)
किसी शब्द की विलोम चमत्कृति ही है कि कवि कह सका:
"विश्व का तामस आ भर जाय / कोई चिन्ता नहीं,