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सारस्वत साधना का स्वर्णकलश : 'मूकमाटी' महाकाव्य
प्रो. अक्षय कुमार जैन अनन्त सत्य की अनुभूति को शब्द ब्रह्म द्वारा अभिव्यक्ति का प्रयत्न मनीषी मानवों द्वारा आदिकाल से ही हैं। महाकाव्य 'मूकमाटी' इसी परम्परा में एक मौलिक-अभूतपूर्व-जीवन्त प्रयोग है । विराट् कल्पना वैभव, विलक्षण प्रत्युत्पन्नमति एवं ब्रह्माण्ड को पिण्ड में व्यक्त करने वाली प्रतिभा से सम्पन्न यह कृति आधुनिक जीवन और जगत् को अमृत वरदान की तरह स्तुत्य और वन्दनीय भी है । कथावस्तु, भाव व्यंजना और शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से यह रचना शताब्दियों पूर्व के भारतीय वाङ्मय का स्मरण करा देती है। इसकी शाब्दिक व्यंजना और उनके अर्थों के अनेकानेक गुह्य रमणीय रहस्यों का परिचय केवल संस्कृत और दक्षिण भारतीय कर्नाटिकी साहित्य में ही मिलता/प्राप्त होता है । 'मूकमाटी' पढ़ते समय मुझे 'भूवलय, 'सप्तानुसन्धान महाकाव्य' (मेघविजयगणि), द्वि-त्रि-अनुसन्धान महाकाव्य 'राघव-पाण्डवीयम्' की स्मृति आ गई तो सपाट, सतर्क सूझबूझ एवं सचोटता की दृष्टि से मध्ययुगीन सन्त कबीर और मीठे-मधुर महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी का साहित्य एक साथ आँखों के सामने तैर गया। दर्शन, सत्य और साहित्य के ऐसे मणि-काँचन प्रयोग, जो कि 'सत्यं-शिवं-सौन्दर्यम्' की पिण्डराशि को मूर्तिमन्त रूप में प्रस्तुत करते हैं, विश्व साहित्य में अंगुलियों पर गिने-चुने (महाकाव्य) ही हैं। मिल्टन के 'पैराडाइज़ लॉस्ट, महर्षि अरविन्द के सावित्री प्रसाद के 'कामायनी', वाल्मीकि की 'रामायण, बाणभट्ट की कादम्बरी, कालिदास के 'रघुवंश' एवं 'मेघदूत' और हिन्दी में 'रासो' से 'रावण' तक के सभी प्रबन्ध काव्य मुझे झकझोरते से पुनर्विचार के लिए कुरेदने लगे।
'मूकमाटी' मुझे 'माटी की महिमा' कविता याद करा गई, जो कि शिवमंगल सिंह 'सुमन' की विश्रुत-भव्यओजस्वी कविता है । इसके कुछ प्रयोग मुझे माखनलाल चतुर्वेदी की 'साहित्य देवता'का स्मरण कराने लगे तो इसका क्रान्तिघोष मुझे खलील जिब्रान की महानतम कृतियों को सामने रखने लगा । जर्मन के महान् लेखक ज्विग की She रचना और भगवान् बुद्ध के जीवन पर लिखी उसी धरती के महान् लेखक की कृतियाँ मुझे अतीत काल के स्वाध्यायी साहित्य को सम्मुख उपस्थित करने लगीं।
जीवन में पहली बार मुझे ऐसी विलक्षण काव्यकृति के पढ़ने का सुखद सौभाग्य मिला जिसकी अभिव्यक्ति में मुझे शब्द नहीं मिल रहे हैं। इस कृति में स्वर-व्यंजनों-बीजाक्षरों ने पहली बार अपने अद्भुत अर्थ रहस्यों को प्रकट किया है। ऐसा लगता है कि स्वयं जंगल की जड़ी-बूटियाँ हकीम लुकमान से बात करके अपने गुणधर्म बता रही हैं और कह रही हैं कि इस रुग्ण, क्लान्त, दैन्य, दु:खी तथा श्वास तोड़ती मानवता के परिपोषण के लिए 'हे महाचिकित्सक ! तुम यह अमृत घट लो और इसकी संजीवनी बिन्दुओं की बौछार से संहारक अणु के ऊपर जलती मानवता को पुन: नवजीवन दान दो।'
शास्त्रीय विद्वान्, साहित्य महारथी, महापण्डितजन इसमें छन्द, अलंकार, व्याकरण, रस और काव्य दोषों के साथ सर्गों की न्यूनता पर अपनी छिद्रान्वेषिणी वक्रदृष्टि डाल सकते हैं, पर जिस रचनाकार ने द्वैत-अद्वैत से परे, धर्मअर्थ-काम तथा मोक्ष के चातुर्यामी संकल्प और उद्देश्य से इस पंच भौतिक शरीर को त्याग, तपस्या और स्वाध्याय की त्रिवेणी में स्नान कराकर, शुक्लध्यान की-सी अवस्था में पहुँच – जो स्वप्न, सुषुप्ति और जागरण की संसार-त्रिपुटि से परे तुरीय ब्रह्मानन्द सहोदर आत्मानन्द का स्वाद लिया हो, उसे अभिव्यक्ति देने के लिए 'चतुःसर्गी' रचना ही उपयुक्त है। ऐसा मेरा मन कहता है कि यह संस्कृत के 'जीवन्धर चम्पू' और राष्ट्रकवि की 'यशोधरा' की भाँति ही आध्यात्मिक महाकाव्य' है।