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________________ 278 :: मूकमाटी-मीमांसा प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी के गुणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। मिट्टी किस-किस रोग का निवारण कर सकती है, इत्यादि प्रयोगों का मुनि विद्यासागरजी को भरपूर ज्ञान है। उन्होंने इन प्रयोगों का इस पुस्तक में उल्लेख किया है : "माटी, पानी और हवा / सौ रोगों की एक दवा " (पृ. ३९९ ) । आपने हृदय को छोड़कर शरीर में सब जगह मिट्टी के प्रयोग की सलाह दी है, जैसे- पक्वापक्व रुधिर भरे घाव में, भीतरी या बाहरी चोट में, असहनीय कर्ण पीड़ा में, ज्वर के समय ललाट में, नासूर में, जुकाम, नक़सीर, शिरःशूल आधा हो या पूर्ण, हस्त-पाद की अस्थि टूटने पर वह मिट्टी से जुड़ सकती है। मिट्टी के पात्र में तपे हुए दूध को पूरा शीतल कर रोगी को पेय रूप में देना चाहिए। मिट्टी गुणकारी होती है। मिट्टी के पात्र में दही जमाकर तथा मथानी से मथने के उपरान्त पूर्णतः नवनीत निकालकर निर्विकार तक्र ( मट्ठा / छाछ) का सेवन करना चाहिए । स्वामीजी को माणिक, मणियों आदि से इलाज होता है, इसका भी ज्ञान है । पुखराज, माणिक, नीलम से मधुमेह, श्वास, क्षय आदि राजरोगों का इलाज होता है । आपने यहाँ सामाजिक प्रथाओं का भी उल्लेख किया है- सूर्यग्रहण में भोजन न करना तथा उस समय जनरंजन, मनरंजन, अंजन - व्यंजन का भी सेवन नहीं करना । इसमें तान्त्रिक ज्ञान का भी उल्लेख मिलता है - मन्त्रित सात नींबू, प्रति नींबू में आर-पार हुई सूई तथा जिन पर काली डोर बँधी हुई है, इन सबको आकाश में काली मेघ घटाओं की कामना के साथ शून्य आकाश में उछालने से पानी बरसता है । इस महाकाव्य में प्रकृति चित्रण भी मिलता है, जो अपने ढंग का अनोखा है । आज तक इस प्रकार का प्रकृति चित्रण किसी भी महाकाव्य में नहीं हुआ है, क्योंकि यह उद्देश्यपूर्ण प्रकृति चित्रण है । जलकण दुष्टता के प्रतीक हैं, भूमिकण सज्जनता के प्रतीक हैं । इन्द्र, मेघ, बिजली, ओलावृष्टि आदि का उद्देश्यपूर्ण वर्णन है। रसों का वर्णन भी उपयुक्तता अथवा उपयोगितावादी दृष्टिकोण या यों कहें कि जैन धर्म के अनुकूल ही किया गया है। रसों की अभिव्यक्ति पर भी धर्म का प्रभाव लक्षित है। 'दया' के कारण करुण रस को प्रमुखता मिली है। निर्वेदभाव के कारण 'शान्त रस' सर्वश्रेष्ठ माना गया है । यही कारण है कि 'वीर रस' को विद्यासागरजी जीवन में उपयुक्त नहीं मानते, क्योंकि इस रस से खून उबलता है और क्रोध काबू में नहीं आ पाता । वेद भाव के विकास के लिए हास्य को त्यागना ही उचित माना है, क्योंकि यह हास्य भाव भी कषाय है। 'रौद्र रस' विकृति है विकार की । शृंगार को जड़ कहा है। भय, विस्मय, बीभत्स, करुण, शान्त एवं वात्सल्य आदि सभी रसों को चित्रित किया है । शान्त में सभी रसों का अन्त बताया है । करुणा और शान्त की तुलना की है। करुणा तरल नदीवत् है, पर से प्रभावित होती है । शान्त किसी बहाव में बहता नहीं, जमाना पलटने पर भी जमा रहता है अपने स्थान पर । - अलंकारों में उपमा, रूपक आदि का प्रयोग यत्र-तत्र मिलता है - "पलाश की हँसी-सी साड़ी पहनी” (पृ. २००); विज्ञान और आस्था का रूपक (पृ. २४९); इन्द्रियाँ खिड़कियाँ हैं, तन भवन है, भवन में बैठा पुरुष वासना की आँखों से भिन्न-भिन्न खिड़कियों से झाँकता है और विषयों को ग्रहण करता है (पृ. ३२९) । इसी तरह वीतरागी पुरुष की गाय आदि से उपमा हैं। गोचरी वृत्ति, भ्रामरी वृत्ति आदि सन्त की होती हैं (पृ. ३३२-३३४) । कहावत भी महाकाव्य में सहज ही मिल जाती हैं- "पूत का लक्षण पालने में" दिख जाता है (पृ. १४, ४८२); "गुरवेल तो कड़वी होती ही है/ और नीम पर चढ़ी हो / तो कहना ही क्या !" (पृ. २३६); "बहता पानी और रमता जोगी” (पृ. ४४८); "संसार ९९ का चक्कर है” (पृ. १६७) । सम्पूर्ण महाकाव्य की शैली प्रतीकात्मक है। एक ही प्रतीक को विभिन्न रूपों में प्रयुक्त किया है, जैसे 'कुम्भ' को निर्बलता का प्रतीक भी माना है क्योंकि बबूल की लकड़ी उसे उठाती है, किन्तु वह पवित्रता प्रतीक भी है और संस्कारित भी है। जलने के पश्चात् स्वयं के लिए वज्रतम कठोर है, 'पर' के प्रति परमहंस है, नवनीत है, सन्तों का प्रतीक भी है; गुरु का प्रतीक भी है, क्योंकि वह गुरु बनकर सेठ को सचेत करता है, उसे समझाता
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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