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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 275 करते हुए जीवन को साधना की सीढ़ी पर चलाता हुआ साधक बनकर अग्नि परीक्षा में सफल होकर दूसरे के योग्य बनने पर ही सन्त कहलाता है अन्यथा वह इस क्षणभंगुर संसार में वर्ण संकर बनकर ही नष्ट हो जाता है । कच्चा कुम्भ मानव की प्रारम्भिक अवस्था का प्रतीक है और पक्का कुम्भ मानव के उच्चतम ज्ञान का प्रतीक है। 'मूकमाटी' महाकाव्य हमें केवल जीवन के तथ्यों से ही अवगत नहीं कराता अपितु जीवन के अनेक सिद्धान्तोंविशेषकर जैन दर्शन के सिद्धान्तों पर भी प्रकाश डालता है, जैसे- “आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं" (पृ. १०); "अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं/और/इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव!/ ...पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है/और/पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है" (पृ. ३३), दया अन्योन्याश्रित सिद्धान्त है । “लघुता का त्यजन ही/गुरुता का यजन ही/शुभ का सृजन है" (पृ. ५१) । अहं का भाव ही मनुष्य में अलगाव पैदा करता है । संयम और अहिंसा जीवन के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, जिन पर चलकर मनुष्य समाज में प्रगति करता है। ये जैन धर्म के सिद्धान्त भी हैं। “मिटती-काया में मिलती-माया में/म्लान-मुखी और मुदित-मुखी/नहीं होना ही/सही सल्लेखना है" (पृ. ८७); “आमद कम खर्चा ज्यादा/लक्षण है मिट जाने का/कूबत कम गुस्सा ज्यादा/ लक्षण है पिट जाने का" (पृ. १३५)। जैन दर्शन के सिद्धान्तों को जिस तरह स्वच्छन्द-छन्द में पिरोया है यह विद्यासागर जी की देन है- “दया विसुद्धो धम्मो” (पृ. ८८); “पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है"(पृ. ९३), "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही/मोह का परिणाम है/और/सब को छोड़कर/अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है"(पृ. १०९-११०); "एक-दूसरे के सुख-दुःख में/परस्पर भाग लेना/सज्जनता की पहचान है" (पृ. १६८), "औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना/दुर्जनता का सही लक्षण है" (पृ. १६८); “प्रमाद पथिक का परम शत्रु है” (पृ. १७२); “ 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक" (पृ. १७२)। 'ही' तथा 'भी' के सम्बन्ध में विचारकों में मतभेद हैं। कुछ विचारक दोनों को ही एक-दूसरे का पूरक मानते हैं तो कुछ विरोधी । आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 'ही' तथा 'भी' के बीच में स्पष्ट भेद-रेखा खींची है। उनके अनुसार 'ही' पश्चिमी सभ्यता का प्रतीक है तो 'भी' भारतीय संस्कृति का। राम 'भी' के प्रतीक हैं तो रावण 'ही' का। 'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। “पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है,/और/ पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है" (पृ. १८९)। जैन धर्म में परिग्रह को पाप माना है, क्योंकि -"अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं" (पृ. १९२); "कुल-परम्परा संस्कृति का सूत्रधार/स्त्री को नहीं बनाना चाहिए।/और/गोपनीय कार्य के विषय में/विचार-विमर्श-भूमिका/नहीं बताना चाहिए" (पृ. २२४); "निर्दोषों में दोष लगाते हैं/सन्तोषों में रोष जगाते हैं/वन्धों की भी निन्दा करते हैं/शुभ कर्मों को अन्धे करते हैं" (पृ. २२९)- ऐसे कर्म होते हैं दुर्जनों के। “काँटे से ही काँटा निकाला जाता है" (पृ. २५६); “जब हवा काम नहीं करती/ तब दवा काम करती है,/और/जब दवा काम नहीं करती/तब दुआ काम करती है" (पृ. २४१); "नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी/अपने घुटने टेक देता है" (पृ. २६९); "उठने की शक्ति नहीं होना ही दोष है" (पृ. २७३)। प्यास का अनुभव होने पर ही प्यास बुझाई जा सकती है, अन्यथा नहीं। “काया में रहने मात्र से/काया की अनुभूति नहीं,/माया में रहने मात्र से/माया की प्रसूति नहीं,/उनके प्रति/लगाव-चाव भी अनिवार्य है" (पृ. २९८)। आत्म साक्षात्कार होना ही दुःख का समाप्त होना है। धन का मूल्य नहीं, क्योंकि वह पराश्रित है । मूलभूत पदार्थ ही मूल्यवान् है । “परीक्षक बनने से पूर्व/परीक्षा में पास होना अनिवार्य है" (पृ. ३०३); "जिसकी कर्तव्य-निष्ठा वह/काष्ठा को छूती मिलती है/उसकी सर्वमान्य प्रतिष्ठा तो"/काष्ठा को भी पार कर जाती है" (पृ. २५८)। धनिक हों या निर्धन कोई भी हों, वे वस्तु का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते, क्योंकि धनिक तो विषयान्ध मदाधीन होता है, अत: उसे दिखाई ही नहीं देता और धनहीन दीन-हीन होने के कारण उसे देख नहीं सकता। दोनों ही वस्तु का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते । “पर से स्व की तुलना करना/पराभव का कारण है/दीनता का प्रतीक भी"(पृ. ३३९);
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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