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मूकमाटी-मीमांसा :: 219
"अधोमुखी जीवन/ऊर्ध्वमुखी हो/उन्नत बनता है।
हारा हुआ भी/बेसहारा जीवन/सहारा देनेवाला बनता है ।” (पृ. ४३) आज के समाज की स्वार्थपरायण वृत्ति को देख, कवि दु:खी है और शिल्पी की बालटी में पानी के साथ आई कुएँ की मछली के माध्यम से वह कहता है कि बाहर चल, नहीं तो अपनी ही जाति, सहधर्मी बड़ी मछलियाँ कल निगल जाएँगी । जघन्य स्वार्थ, जाति बन्धन, धर्म बन्धन को तोड़ चुका है। निर्ममता, कठोरता, क्रूरता का भाव मानव मन में तीव्रता से स्थान ग्रहण करता जा रहा है :
"निश्चित ही आज या कल/काल के गाल में कवलित होंगे हम ! क्या पता नहीं तुझको !/छोटी को बड़ी मछली/साबुत निगलती हैं यहाँ और/सहधर्मी सजाति में ही/वैर वैमनस्क भाव/परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान, श्वान को देख कर ही/नाखूनों से धरती को खोदता हुआ
गुर्राता है बुरी तरह।" (पृ.७१) दया, जो धर्म का मूल है, उसका आज कितना उपहास हो रहा है। उसके हास्यास्पद स्वरूप का एक चित्र
देखिए:
“अब तो."/अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी/'दया-धर्म का मूल है' लिखा मिलता है ।/किन्तु,/कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न!" (पृ. ७३) निर्दय मानव पर एक और कड़े चाबुक का प्रहार । यहाँ माटी' दया के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत की गई है। वह नाना प्रकार की यन्त्रणाओं, वेदनाओं की भुक्तभोगी है, अत: शिल्पी से निवेदन करती है कि बालटी में ऊपर आई मछली को तुरन्त कूप में सुरक्षित लौटा दीजिए, क्योंकि देर होने पर जल के वियोग में वह प्राणों की आहुति दे देगी :
"माटी संकेत करती है शिल्पी को/कि/इस भव्यात्मा को/कूप में पहुँचा दो
सुरक्षा के साथ अविलम्ब !/अन्यथा/इस का अवसान होगा।" (पृ. ८८) शीर्षक से ही काव्य के खण्ड बँधे नहीं हैं। शीर्षक का आशय तो कभी स्पष्ट हो गया, किन्तु भावों की शाखाप्रशाखा, अपने में कितनी महत्त्वपूर्ण है । साथ ही रोचक और चित्ताकर्षक, भाव-भाषा-शैली का कभी सरल, तो कभी व्यंग्यात्मक प्रयोग अपना एक अलग स्थान रखता है । इसकी विविध विधि वर्णन कला और दार्शनिक भावों का यत्र-तत्र उद्गार पाठक को सरपट नहीं चलने देता, रुक-रुक कर सावधान करता चलता है और पाठक मग्न हो हर पड़ाव पर आह्लाद का अनुभव करता चलता है। उसे श्रम का आभास नहीं होने पाता, ऊबना तो अलग बात है। खण्ड एक संकर नहीं : वर्ण-लाभ' का भावांश उक्त भूमिका में निहित है। खण्ड-दो: 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं- 'माटी' पर विचार प्रसंगवश ही सही, जगत् की जागतिकता से पूर्णरूपेण सम्बद्ध है । प्रकृति-पुरुष मिलन सहज स्वाभाविक है, दोनों की प्रकृति के अनुकूल है और दोनों का धर्म है। पुरुष का अन्यत्र रमना जीवन को भ्रामक बनाना है । हल्का होकर निस्तेज निस्सत्त्व हो जाना है और अशान्ति को आमन्त्रित करना है । सृष्टि के जीवों के प्रति भौतिकता से विरक्त सन्त की लेखनी सदाशयता से कितनी परिपूर्ण है कि