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मूकमाटी-मीमांसा :: 201
होकर मुक्त हो जाती है।
इस रूपक में समाजवाद और आतंकवाद का वर्णन आधुनिक प्रभाव को व्यक्त करता है। जैनदर्शन के अनुसार मुक्ति का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है । सम्यग्दर्शन से तात्पर्य जीवादि तत्त्वों के सम्यक् श्रद्धान से है। तदनन्तर ही परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञानों में समीचीनता आती है और तभी आत्मा स्व-पर का भेद जानकर आत्म-गुणों में रमण करता है।
___ इस प्रकार समूचे काव्य में रूपक इस प्रकार ग्रथित है कि जिस प्रकार मुक्तामाला में सूत्र । कथा का विस्तार अन्तिम खण्ड में कुछ लम्बायमान्-सा भासित होता है, परन्तु वह भासना मात्र है, वास्तव में नहीं, क्योंकि कथा में कवि आत्म-विकास की प्रक्रिया में भाव-विभावों में आने वाले सभी पक्षों को समाहित करना चाहता है और वह ऐसी शैली में, जिसमें न प्रवाह मन्द पड़े और न अप्रासंगिकता आए। वास्तव में समस्त काव्य में कथा के माध्यम से मुमुक्षु आत्मा के विकास की चौदह स्थितियों का अंकन है, जिन्हें जैन दर्शन में 'गुणस्थान' कहते हैं।
सम्यक् श्रद्धान के साथ ही सम्यक् दृष्टि का उद्भव होता है, जिससे मिथ्या भावों की तीन स्थितियाँ-१पूर्ण मिथ्यात्व, २-सम्यक् दृष्टि संस्कार समन्वित मिथ्यात्व (सासादन) तथा ३- मिथ्याभाव मिश्रित सम्यग्भाव (सम्यग्मिथ्यात्व)की झलक- नष्ट हो जाती हैं और आत्मा अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ को समाप्त कर हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप पापों से विरत होने की भावना करने लगती है। यह चौथी स्थिति है अविरतसम्यग्दृष्टि । पुन: अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि कषायों का उदय विनाश कर पाँचवीं स्थिति (संयमासंयम) को ग्रहण करती है और वह उपर्युक्त पापों से अल्प रूप में विरत होकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह व्रतों का एकदेश रूप में पालन करने लगती है। यह श्रावक की स्थिति है।
छठी श्रेणी (प्रमत्तविरत) से अट्ठाईस मूलगुणों से युक्त साधु-चर्या आरम्भ होती है जो प्रत्याख्यानावरणीय कषायों का उदय-समाप्त करने से उपलब्ध होती है । इसमें वह अहिंसा आदि पाँच व्रतों का पूर्णत: पालन तो करता है परन्तु प्रमाद की स्थिति रहती है। सातवीं श्रेणी (अप्रमत्त विरत) में संज्वलन क्रोध आदि न्यून हो जाते हैं, जिससे उसमें प्रमाद का अभाव हो जाता है, समन्वय और सामंजस्य की भावना उद्गत हो जाती है, जिससे सभी मित्रवत् दृष्टिगोचर होते हैं, कोई शत्रु नहीं। आठवें (अपूर्वकरण) में पहुँचते ही भाषा विगलित हो जाती है, जिससे ऋजुता आ जाती है, छल-कपट और दम्भ के भाव पलायित हो जाते हैं। अग्रिम दो स्थितियाँ (अनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्म सांपराय) ये दो ऐसी स्थितियाँ हैं, जिनमें संज्वलन कषायें आदि क्रमश: उपशमित या क्षपित होती जाती हैं। ग्यारहवीं स्थिति वाला (उपशान्त मोह) पुनः नीचे की स्थितियों की ओर मुड़ता है परन्तु बारहवीं वाला (क्षीण मोह) कषायों के पूर्णत: नष्ट हो जाने से वीतरागी हो जाता है और पुन: घातक कर्मों-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को नष्ट कर अट्ठारह दोषों से रहित अरिहन्त पद की तेरहवीं स्थिति (सयोगकेवली) को प्राप्त कर लेता है । अन्त में अन्तिम शुक्लध्यान में लीन चौदहवीं स्थिति (अयोगकेवली दशा) में आयुकर्म के साथ नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों का विनाश कर संसार से मुक्त हो जाता
इस आत्मविकास की प्रक्रिया में संवर और निर्जरा के साधनों का उपयोग करना पड़ता है अर्थात् पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह भावनाएँ, बाईस परीषहों पर विजय, पाँच चारित्र और तप आदि के द्वारा शुभाशुभ कर्मों का आना रोक कर आत्मप्रदेशों से बँधे हुए पूर्व कर्मों का विनाश करना पड़ता है, तभी आत्मा कर्मों से मुक्त हो 'मुक्त' कहलाती है।
___ इस कथा में माटी रूप आत्मा के पूर्ण विकास में जैन अध्यात्म की यह सम्पूर्ण प्रक्रिया रमी हुई है । इस विकास में अनेक बाधाएँ आती हैं तथा परीषह और उपसर्गों को सहना पड़ता है। वह सब कुछ प्रथम माटी रूप और पुन: कुम्भ