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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 199 भावों से जलचरों के भाव बदल गए। तब नदी ने उन्हें भँवर में फँसाना चाहा पर कुम्भ का यह उपदेश सुन कर कि 'अरी पापिष्ठे ! तू भी तो धरती का आश्रय लेकर बह रही है ।' नदी को ज्ञान हुआ और वह शान्त हो गई । आतंकवाद निराश नहीं हुआ, उसने पत्थर बरसाए और ललकार कर कहा कि तुम समाजवादी हो, किन्तु समाजवाद कहने मात्र से समाजवादी नहीं हो जाते । उसने जाल में फँसाना चाहा । देवों का आह्वान हुआ । अन्त में आतंकवाद परास्त हुआ । सबका उद्धार हुआ। सेठ सपरिवार नदी से बाहर आया । वह हाथों में कुम्भ ले उसी स्थान पर आया जहाँ से कुम्भकार ने मिट्टी खोदी थी । धरती ने पुत्र का अभ्युदय देखकर प्रसन्नता प्रकट की और कहा - 'पुत्र ! तुमने मेरी आज्ञा मानकर कुम्भकार का संसर्ग किया, यह तुम्हारा सृजनशील जीवन का आदिम सर्ग हुआ । उसके चरणों में समर्पित भाव से जो अहं का उत्सर्ग किया, वह द्वितीय सर्ग हुआ । पुनः बड़ी कठोर परीक्षाएँ दीं, यह तृतीय सर्ग हुआ और जीवन को ऊर्ध्वमुखी बनाया, यह जीवन का अन्तिम सर्ग हुआ तथा तुमने अपने को निसर्ग किया, यह जीवन का वर्गातीत अपवर्ग हुआ । यह सुनकर कुम्भ नत-मस्तक हो गया। इसी समय सभी ने एक पादप तले वीतराग साधु को देखा, वे वहाँ गए, प्रणाम किया और पावन कलश जल से पादाभिषेक किया। सभी ने उपदेश की कामना व्यक्त की । साधु ने कहा : 'जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है और वह मोक्ष बन्धन के कारणभूत तन-मन-वचन का आमूल मिट जाना ही है। इसके पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता, जैसे मन्थन के पश्चात् निकला मक्खन फिर दूध में एकरूप नहीं होता ।' यह कहकर सन्त महामौन में लीन हो गए। सबने देखा कि मूकमाटी इस घटना को अनिमेष निहार रही है । रूपक का निर्वहण : एक पदार्थ में पर-पदार्थ का रूप देखना या मानना रूपक है। शब्द, वाक्य या वाक्यावलि में रूपक का निर्वाह सहज होता है, परन्तु समूचे प्रबन्ध काव्य में इसका निभाया जाना दुष्कर होता है। वह तब और भी दुष्कर होता है जब कि कथानक बृहत् हो और उस पर भी तब और भी अधिक कठिन होता है जब कथानक में आद्यन्त रूपक हो और वह भी अध्यात्मपरक, जैसा कि उपर्युक्त कथानक से ज्ञात होता है । 'मूकमाटी' ऐसा ही एक अध्यात्मपूर्ण रूपक महाकाव्य है, जिसमें माटी के मंगल कलश रूप में चरम विकास की कथा वर्णित है । कथा का प्रारम्भ सरिता तट पर निशावसान तथा उषागमन के समय युग-युगों से पतिता माटी में उद्धारार्थ ज्ञानोद्भास से होता है । सरिता संसार का प्रतीक है। माटी रूप आत्मा अनादिकाल से कर्मपुद्गलों से आबद्ध है | निशा अज्ञान और उषा ज्ञान के प्रतीक हैं। जब भव्यात्मा में अज्ञान का अभाव होता है और ज्ञान की किरणें प्रकाश फैलाने लगती हैं तो उसमें मुक्ति की कामना जागृत होती है। माटी रूप आत्मा में यही भाव जगा है । वह धरती माँ से अपनी पर्याय से मुक्ति का साधन पूछती है । यहाँ धरती अन्तश्चेतना है, जो माटी रूप आत्मा समझाती हुई प्रतिसत्ता के प्रतिकूल शाश्वत सत्ता को उद्भासित - ज्ञानोबुद्ध करने के लिए कहती है और इसके लिए सर्वप्रथम आस्था अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपदेश देती है। इसके पश्चात् ही ज्ञान सम्यक् होता है । इससे साधक के मन में स्वरातीत अनहदनाद गूँजता है अर्थात् आत्मा स्वरूप को पहचानती है । यही सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का साधन बतलाती है। आचार्य उमास्वामी 'मोक्षशास्त्र' में लिखते हैं: “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।” इस प्रसंग में धरती रूपी अन्तश्चेतना का उद्बोधन बड़ा ही तत्त्वगर्भित है । साधक को गुरुतम के ज्ञान के लिए लघुतम बनना होता है। सत्यावधान रूप आस्था अर्थात् सम्यग्दर्शन के अभाव में बोध लुप्त हो जाता है और कषायेंक्रोध, मान, माया और लोभ- भड़कने लगती हैं, अत: आस्था की दृढ़ता के लिए अतिचार, अनाचार, राग-द्वेष एवं कषायों का त्याग कर तथा दमी - यमी बनकर उत्साह के साथ सत्पथ पर चलना होता है, तभी आत्मविकास सम्भव है। धरती रूप अन्तश्चेतना के सम्बोधन से माटी रूप आत्मा को प्रकृति और पुरुष के सम्मिलन, विकृति और
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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