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192 :: मूकमाटी-मीमांसा वैमनस्य, भेद भाव से आपूरित कर इस विश्व को विरूप करना चाहते हैं।
'मूकमाटी' के रचनाकार की दृष्टि प्रगतिशील भी है। उसकी यह प्रगतिशील विचारधारा समाजवादी विचारधारा जैसी है । वह यह मानता है कि समाज इस समय व्यक्तिवादी अवधारणा को अपनाकर विकसित हो रहा है जिससे समाज में जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, भाषा, देश जैसी अनेक भेदात्मक स्थितियों का उदय हो जाता है । अब जातियाँ केवल दो ही हैं-बड़ी जाति और छोटी जाति । बड़ी जाति पर्याय है पूँजीपतियों का और छोटी जाति पर्याय है सामान्यजन का। पूँजीपतियों का औज़ार है पूँजी अर्थात् धन । इन पूँजीपतियों के उद्भव की कहानी बहुत-कुछ धन एकत्रित करने की कहानी से जुड़ी हुई है । यह धन या पूँजी ही संसार के सारे वैनमस्य, द्वेष, शत्रुता की जननी है । इसने संसार के सारे धर्मों को विकृति कर रखा है। समाज के विकृति होने पर व्यक्ति भी विकृति हो जाता है । इसी विकृति की प्रधानता से जब युग भी परिचालित होने लगता है तो उसे 'कलियुग' कहते हैं । कलियुग इसी वैमनस्य, द्वेष, घृणा, हिंसा, शत्रुता का लेखा-जोखा है । यह सत् को असत् मानने की दृष्टि विकसित करता है । कलिकाल (मृत्यु) के समान है इसीलिए वह क्रूर है। इसी असत् दृष्टि ने पूरे विश्व से 'धम्म सरणं गच्छामि, 'धम्मो दया-विसुद्धो' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्'आदि की भावना को तहस-नहस कर दिया है। अब व्यक्तियों की दृष्टियों में अन्तर आ गया है । इस अन्तर का कारण कलियुग का प्रकोप है : “ “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है/वसु यानी धन-द्रव्य/धा यानी धारण करना/ आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का" (पृ. ८२)। स्पष्ट है कि आज के मानवीय सम्बन्धों का मूल आधार धन ही है । पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, मानव-मानव, देश-विदेश, जन-जन के रिश्तों में जो बदलाव आया है उसका उत्स धन ही है । इसके असमान वितरण ने देश-विदेश में तहलका मचा रखा है। सारे भेद-भाव की जड़ यही है । व्यक्तिवादी विचारधारा के विकास में इसी का हाथ है । इसी ने व्याधियों, आधियों, आपदाओं, हिंसाओं, युद्धों को जन्म दिया है। विश्व समाज को बाँटने वाला भी यही है । संकर-दोष और असत् को विस्तार देने वाला भी यही है । रचनाकार इन कलियुग की विकृतियों से बचने का आह्वान करता है । प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इन सारी विकृतियों से, जिसकी जड़ धन है, कैसे बचा जा सकता है ? इस पर विचार करते हुए रचनाकार सात्त्विक कर्मों की बात करता है । वह कहता है : “शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं।" साहित्य शब्द-साधना है । वह अनुभव कराने में मदद करता है । व्यक्ति उसका अनुभव तभी कर सकता है जब उसका मन विकृति न हो यानी सात्त्विक हो । सात्त्विक मन ही साहित्य के अनुभूत और अनुप्रेरित अनुभूतियों को कर्म रूप में परिणति कराते हैं। साहित्य इसी अर्थ में सार्थक है। साहित्य ही वह ज्ञान-राशि है जो मनुष्य में विवेक जगाता है तथा व्यक्ति, समाज और जीवन की वास्तविकताओं से जीव को परिचित कराता है।
'मूकमाटी' एक साहित्यिक कृति है। उनमें साहित्य की सभी विशेषताएँ उपलब्ध हैं। साहित्यकार एक शिल्पी है जिसके साँचे में साहित्य ढलता है । साहित्य क्या है ? इसको परिभाषित करते हुए रचनाकार कहता है :
"हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है
और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है ।" (पृ. १११) तुलसी की पंक्ति : “सुरसरि सम सब कर हित होई" की तरह ही रचनाकार का भी यह मन्तव्य है कि साहित्य को लोककल्याणकारी भावना से युक्त होना चाहिए। इस अर्थ में रचनाकार की साहित्य की परिभाषा लोककल्याण से आपूरित है। साहित्य से ही सुख का समुद्भव और सम्पादन होता है। सचमुच साहित्य ही मानव जीवन का एक ऐसा जीता-जागता इतिहास है जो अतीत के साथ वर्तमान को भी अपने गर्भ में छिपाए रहता है । वे साहित्य को एक