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मूकमाटी-मीमांसा :: xxiii
आ. वि.- अनुभूति को जीवित रखने के लिए कोई साँचा तो बनाना चाहिए। मैं कल्पना के पक्ष में बहुत कम हूँ। प्र. मा. - अच्छा, ये आपकी दी हुई कल्पना है, जो महाकाव्य है, वह अकल्पनीय कल्पना है ? आ. वि.- ये कल्पनातीत है, क्योंकि घटित नहीं हो रही है और कल्पना कर लें तो इस अपेक्षा से जो घटित है, जिस
रूप में है, उसको हम शब्द रूप दे दें तो बहुत अच्छा रहेगा । प्र. मा.- हमारे अचेतन मन की खान के अन्दर जो छुपी हुई स्वर्ण राशि है, उसे मिट्टी के अन्धकार में से निकाल कर
के कल्पना तक उसको परिशोधित कर.जब उसका बोधन-शोधन होता है तब जाकर उसकी एक मुद्रिका बनती है । शब्दों के जड़ाव के अन्दर तब जाकर लोगों के काम की होती है । रस प्रक्रिया जैसी है यह । जैसे कि भोजन के लिए पाकशास्त्र में भी जो मूल चीज़ है, उसका वैसा ही सेवन नहीं करते, ये सारा परिष्करण
आ. वि.- जहाँ तक बन सके वहाँ तक मैं सोचता हूँ इन रसों में ही विशेष संयोजना या खोज ना करके जो रसास्वादी
व्यक्ति हैं, उनकी रसास्वादन में थोड़ी रुचि ज्यादा बढ़ जाए तो अपने आप ही इसका नाम ज़्यादा हो जाएगा। इसमें हम बहुत कुछ भरना चाहते हैं, लेकिन सामने वाला व्यक्ति ग्रहण नहीं कर पाता । इसलिए जहाँ तक बन सके वह बन्धन टूट जाए। अन्यथा, शृंगार लाओ, विरह लाओ - यानी वो लाओ, ये लाओ । इससे पूरा
का पूरा वो ही इतिहास, पुन: जमघट हो जाता है। प्र. मा.- आप केवल शान्त रस में विश्वास करते हैं ? आ. वि.- जी हाँ ! इसमें कहा भी है : “सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है" (पृ.१६०) । कहा है :
__ "शान्ताद् भावा: प्रवर्तन्ते।" (अन्य के द्वारा एक प्रश्न) प्र. मा. - आप पूछ रही हैं- कुम्भकार ईश्वर है या गुरु है ? वो गुरु मान कर चल रही हैं। आप क्या मानते हैं ? आ. वि.- ईश्वर अपने यहाँ (जैन दर्शन में) दो प्रकार के होते हैं – एक सकल परमात्मा और एक निकल परमात्मा ।
सकल परमात्मा – शरीर सहित, जो अरहन्त परमेष्ठी हैं। दूसरे शरीर रहित होने से निकल परमात्मा हैं। वो
हमारे परम गुरु हैं। और ये जो ज्ञानसागर महाराज हैं वो हमारे गुरु हैं। प्र. मा.- हमारे यहाँ तो गुरु को ही “गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः' कहा है । ये तीनों जो हैं, वे गुरु में आ
गए हैं तो सृष्टि उत्पत्ति-स्थिति एवं लय- इन सबका गुरु के अन्दर समावेश है। हमारे यहाँ गुरु की धारणा
बहुत व्यापक है । तो गुरु और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं हमारे यहाँ विचारों में ? आ. वि.- इतना ही अन्तर है कि गुरु जो हैं : “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काकै लागूं पाँय । बलिहारी गुरू आपनै...आगे...,
__-गोविन्द दियो ‘बताय' नहीं, बल्कि गोविन्द दियो बनाय' कहते हैं।" प्र. मा. - वाह ! वाह !! ‘बताय' के बदले में बनाय' कर दिया। (एक अन्य के द्वारा प्रश्न) प्र. मा.- आप पूछ रहे हैं कि जब आप कर्नाटक से आए थे, तब इतनी हिन्दी नहीं आती थी। फिर हिन्दी पर इतना
अधिकार कैसे प्राप्त किया ? आ. वि.- अधिकार तो नहीं था, इसे स्वीकार किया है। हमने केवल सुना है । गुरुजी ने केवल सुनाया था । वो कुछ
कुछ मारवाड़ी बोलते थे। प्र. मा.- मैं सोचता हूँ सारा श्रेय संस्कृत-प्राकृत को देना चाहिए, जिन भाषाओं ने इस सब को आधार दिया। आ. वि.- गुरुजी के मुख से हमने संस्कृत पढ़ी, लेकिन बोल-चाल का माध्यम हिन्दी भाषा रही ।