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धर्म और लोकजीवन के समन्वय का अद्भुत महाकाव्य : 'मूकमाटी'
डॉ. शम्भू नाथ पाण्डेय 'मूकमाटी' जैन सन्त कवि आचार्य मुनि विद्यासागर की अति महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें धर्म, दर्शन तथा अध्यात्म के तत्त्वों को तो समेटा ही गया है, साथ ही लोक जीवन की सम्पृक्तता को सार्थक अभिव्यक्ति देकर इसे आधुनिक जीवन-काव्य बना दिया गया है । काव्य-निर्माण में जैन सन्त कवियों की महती भूमिका रही है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट, परवर्ती हिन्दी आदि कोई भी ऐसी भाषा नहीं जिसमें जैन कवियों की लब्धप्रतिष्ठ रचनाएँ न मिलती हों। जैन सन्तकवियों ने सदैव इस बात का ध्यान रखा कि रचनाओं के माध्यम से जीवन को उदात्त बनाया जाय। इसलिए धर्म-दर्शन उनके काव्य के प्रेरक तत्त्वों में रहा है। एक समय हिन्दी आलोचकों में इस बात पर मत वैभिन्य रहा कि कितनी दूर तक इन ग्रन्थों को काव्य-रचना माना जाय । हिन्दी साहित्य के यशस्वी आलोचक, इतिहासकार आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास, (प्रथम संस्करण, पृ. ४) के वक्तव्य में कहा था कि "अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्मतत्त्व निरूपण सम्बन्धी हैं जो साहित्य - कोटि में नहीं आतीं।" पर आचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिन्दी साहित्य का आदिकाल', पृष्ठ ११) इस बद्धमूल दृष्टि को स्वस्थ भावना का परिचायक नहीं मानते । उन्होंने शुक्लजी के इस कथन का पुरजोर खण्डन और अपने मत का प्रतिपादन करते हुए कहा : “इधर जैन-अपभ्रंश चरित-काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय के मुहर लगाने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है।...धार्मिक साहित्य होने मात्र से कोई रचना साहित्य कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जाएगा और जायसी का पदमावत साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा" आचार्य द्विवेदी का यह मत हिन्दी जगत् में काफी स्वस्थकर माना गया। जैन ग्रन्थों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता ही गया । आकर्षण का कारण भी था क्योंकि जैन सन्त कवि काव्य के मर्म को भलीभाँति जानते हैं। इसलिए वे निरा उपदेश नहीं देते, दर्शन के वाग्जाल में नहीं उलझाते, धर्म का संकीर्ण रूप प्रदर्शित नहीं करते या पाठक को कोमल भावों से वंचित नहीं करते। उनकी दृष्टि उदात्त है । लक्ष्य ऊँचे हैं। भाव गहरे हैं। जीवन के प्रतिपक्ष स्वस्थकर हैं। वैराग्य का आग्रह है पर राग को जला या भस्मीभूत कर नहीं। राग के उदात्तीकरण (sublimation) पर विशेष बल दिया गया है । जीवन और जगत् की उन्मुक्त पर सात्त्विक अभिव्यक्ति को कुशलता से उकेरा गया है।
जैन काव्यधारा की इन्हीं विशिष्ट उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए प्राकृत-अपभ्रंश के अनुसन्धित्सु विद्वान् डॉ. रामसिंह तोमर ('प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव', पृष्ठ ६९) ने लिखा है : "विक्रम की आठवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक जैन कवियों द्वारा निर्मित अपभ्रंश साहित्य की अविच्छिन्न धारा मिलती है । इस सुदीर्घ काल में जो प्रचुर साहित्य रचा गया होगा उसका केवल एक अंश इस समय प्रकाश में आया है। धर्म और साहित्य का अद्भुत सफल मिश्रण जैन कवियों ने किया है । जिस समय जैन कवि काव्य रस की ओर झुकता है तो उसकी कृति सरस काव्य का रूप धारण कर लेती है और जब धर्मोपदेश का प्रसंग आता है तो वह पद्यबद्ध धर्म उपदेशात्मक कृति बन जाती है । इस उपदेश प्रधान साहित्य में भी भारतीय जीवन के एक विशेष पक्ष के दर्शन होते हैं, और इस दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है।"
जैन सन्त कवियों ने प्राय: सभी प्रकार के काव्य-रूपों में रचनाएँ की हैं। चरित, पुराण, महापुराण, कहा (कथा) सन्धि, कुलक, चउपई, आराधना, रास, चाँचर, फागु, स्तुति, स्तोत्र आदि विविध काव्य-रूपों से यह साहित्य धारा सम्पन्न है । प्राचीन-अर्वाचीन काव्य-धारा के सुप्रसिद्ध एवं सुधी समीक्षक डॉ. नामवर सिंह ने इसका ऐसा मूल्यांकन