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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 171 गवेषणा में परे हो;/छिद्रान्वेषी नहीं/गुण-ग्राही हों।” (पृ. ३००) ठीक उसी समय नगर सेठ ने भी एक सपना देखा कि वह अपने प्रांगण में ऐसे ही भिक्षार्थी महासन्त का स्वागत कर रहा है। जागते ही उसने ऐसे अतिथि के स्वागत के लिए अपने एक सेवक को कुम्भकार के पास भेज दिया। यह सन्देश सेवक से सुनकर हर्षित होकर कुम्भकार ने कहा : "दम साधक हुआ हमारा/श्रम सार्थक हुआ हमारा और/हम सार्थक हुए।” (पृ. ३०२) सेवक बजा कर कुम्भ की परीक्षा करता है। कुम्भ में से सात स्वर निकलते हैं जिनका भाव था : "सारे ग'म यानी/सभी प्रकार के दु:ख/प"घ यानी ! पद-स्वभाव और/नि यानी नहीं,/दु:ख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह।” (पृ.३०५) कैसा अद्भुत विश्लेषण है स्वर-संगीत का । सेवक जब कुम्भ का मूल्य देने लगता है तो कुम्भकार यह कह कर कि आज दान का दिन है, अत: कुछ भी लेने से इनकार कर देता है । कुम्भ कुम्भकार-अपने जन्मदाता के घर से विदा होता है एक नए उल्लास के साथ । यहाँ से कथा एक नया मोड़ लेती है। नगर सेठ प्रसन्न होकर सेवक से वह कुम्भ लेता है और उसे शीतल जल से धोकर दाएँ हाथ की अनामिका से स्वयं का प्रतीक स्वस्तिक मलयाचल के चन्दन से अंकित करता है और धर्म परम्परानुसार उसे अन्य चिह्नों से चिह्नित करता है । फिर कुम्भ के मुख पर तांबूल पत्र रखकर, उस पर श्रीफल रखकर उसे पूर्ण ‘मंगल कलश' का रूप देता है। यहाँ श्रीफल और पत्तों के बीच काठिन्य और मृदुता पर बातें होती हैं। फिर वह कुम्भ अष्ट पहलूवाली चन्दन की चौकी पर मानो अतिथि-प्रतीक्षा के लिए रख दिया जाता है। नित्य नियम के अनुसार सेठ अपने महाप्रासाद के पंचम खण्ड पर स्थापित चैत्यालय में प्रभु की रजत प्रतिमा की वन्दना और अभिषेक-प्रक्षालन करता है, फिर अष्ट मंगल द्रव्यों से उनकी पूजा करता है। __ अपने-अपने प्रांगण में अतिथि की प्रतीक्षा के लिए नगर के नर-नारी आ खड़े होते हैं। नगर सेठ भी मंगल कुम्भ लेकर खड़ा हो जाता है। अतिथि का आगमन होता है । दाताओं के मुख से जय-जयकार ध्वनि निकल पड़ती है। परन्तु वे वीतराग निर्ग्रन्थ अतिथि उन्हें देखते हुए आगे निकल जाते हैं । दानदाताओं में उदासी छा जाती है। सेठ भी इसी आशंका से उदास होने को है कि कुम्भ उसे सचेत करता है। नगर सेठ का भाग्य उसके साथ था। अतिथि उसके सामने आकर रुक गए। अभ्यागत का स्वागत प्रारम्भ हुआ, नवधा-भक्तिपूर्वक । यहाँ कवि ने आहार-दान का विस्तृत और सुन्दर विवेचन अपनी गतिशील लेखनी से किया है। अतिथि तथा आहार का वर्णन करते-करते कवि आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयसार' के सर्वविशुद्ध अधिकार के मर्म तक पहुँच जाता है : "...मधुर, अम्ल, कषाय आदिक/जो भी रस हों शुभ या अशुभकभी नहीं कहते, कि/हमें चख लो तुम ।/लघु-गुरु स्निग्ध-रूक्ष शीत-उष्ण मृदु-कठोर/जो भी स्पर्श हो, शुभ या अशुभ
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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