________________
XX :: मूकमाटी-मीमांसा
आ. वि. - हाँ ! स्थितिशील, धारणशील, पालनशील, क्षमाशील और तारणशील है । धरणी- "जो धारण करती है यानी धरणी- णी रध ।" अथवा "तीर पर जो धरने वाली है वह धरती - तीर ...ध ।” (द्रष्टव्य, पृ. ४५२-४५३)
प्र. मा. - वाह ! वाह !! तो इन दो तत्त्वों में, जल और मिट्टी में, आपने 'अग्नि तत्त्व' को किस तरह इस्तेमाल किया ?
आ. वि - अग्नि को जलाने के रूप में भी लोग अंगीकार कर लेते हैं। लेकिन जलाने वाली सारी चीजें हमारे लिए बाधक हैं, ऐसा नहीं है । स्वयं ही घड़ा कहता है कि मुझे जला दो, क्योंकि तुम्हारे द्वारा मैं जब तक नहीं जलूँगा, तब तक मेरी यात्रा पूर्ण नहीं होगी । और ऐसा मत सोचो कि तुम मुझे 'जला' रही हो । नहीं, वास्तव में तुम मुझे 'जिला' रही हो। मेरे भीतर जो दोष हैं, उन दोषों को जला रही हो । उन दोषों को जलाए बिना मेरी जीवन यात्रा सम्भव नहीं । मेरी जीवन यात्रा का विकास तुम्हारे जलाने के ऊपर ही है । अत: तुम नि:संकोच होकर जला दो, मैं जलने के लिए तैयार हूँ। तो अग्नि को इस रूप में अंगीकर कर लिया ।
प्र. मा. - न्याय या वैशेषिक आदि दर्शनों में घड़े के निर्माण के समय यह माना जाता है कि अग्नि में एक-एक कण जलता चला जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि इकट्ठा बन जाता है । आपका क्या कहना है ?
आ. वि. - कोई भी कार्य जो होता है तब यदि हम 'निष्पन्न दशा' को लेकर चलते हैं तो 'पीछे का' गौण हो जाता है। लेकिन ‘पीछे को' गौण के साथ हम यदि निराकृत कर दें तो हमारे हाथ कुछ नहीं लगता । प्र. मा.- थोड़ा स्पष्ट कीजिए इसे ।
आ. वि. - जैसे किसी ने एम. ए. किया। तो सोलह ( ११+३+२) कक्षाएँ उत्तीर्ण करने के उपरान्त उसके पास गुरुत्व आया । किसी एक विषय के ऊपर अधिकार आ गया। यह निश्चित बात है। लेकिन यदि प्रथम कक्षा, द्वितीय कक्षा आदि-आदि पास नहीं करता तो सोलहवीं कक्षा कोई वस्तु तो हमारे सामने नहीं रहती । प्रथम कक्षा, दूसरी कक्षा आदि का सारा ज्ञान संयोजित होकर ही तो एम. ए. कहलाता है ।
प्र. मा. - तो ये स्टेप बाई स्टेप होता है ? घड़े का निर्माण भी स्टेप - बाई स्टेप हुआ ? एकदम नहीं ? आ. वि. - एकदम नहीं होता ।
प्र. मा.
एक दम अग्नि के प्रवेश से नहीं बन जाता, ऐसा नहीं होता । मेरी एक जिज्ञासा यह थी कि यह घड़ा जो निर्मित हुआ, उसमें पानी के अंश और आकाश की क्या स्थिति है ?
आ. वि. - आकाश की स्थिति यह है कि उसने पानी को अवगाहित करने का अवकाश दे दिया । दूसरा यह कि घटाकाश, पटाकाश का जब व्यवहार किया जाता है तो उसका आशय यह नहीं होता कि वह सब आकाश का नाम है, अपितु वह घटगत आकाश है, पटगत आकाश है । जिस स्थान पर घड़े ने अपने को स्थापित किया है, उस स्थान पर स्थित घट में जो आकाश है, वह घटाकाश है। उसे घटाकाश मान लिया गयाअन्यथा, वहाँ आकाश की कोई बात नहीं ।
-
प्र. मा. - यहाँ आपने स्पेश (Space) या दिक् जो है या खम् - इस तत्त्व को मान लिया । अभी आपने कहा था कि... आ.वि - हाँ, माना है। दिक्-कालातीत नहीं है । घट की स्थिति जो है ।
प्र. मा. - यहाँ आपने कहा था कि घट की यात्रा दिक्-कालातीत नहीं है, अमूर्त नहीं है ? आ. वि. जी हाँ ! काल बताने के लिए घट कारण तो है। और इसकी प्रक्रिया में काल सहयोग भी दे रहा है। इसकी व्यवस्था भी हमने बताई । लेकिन काल को ही सब कुछ मान लें या स्थान को ही सब कुछ मान लें तो घट
-