SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' : मानव चेतना के विकास की गाथा डॉ. शरेशचन्द्र चुलकीमठ 'मूकमाटी' आचार्य विद्यासागरजी द्वारा प्रणीत दार्शनिक महाकाव्य है । यह जैन धर्म के सम्यक् दर्शन का महाकाव्यात्मक आख्यान है । कई दृष्टियों से यह एक उल्लेखनीय मौलिक सृष्टि है। इसमें अध्यात्म दर्शन है और जीवन दर्शन भी; तत्त्व चिन्तन है और काव्य मीमांसा भी; अलौकिकता का विश्लेषण भी और लौकिकता की चर्चा भी, तथा मानवीय आदर्शों का बोध भी है और लोक व्यवहार का ज्ञान भी। इसे दर्शन काव्य कहा जा सकता है जो काव्य दर्शन से सर्वथा रिक्त नहीं है । यह आमधारणा रही है कि महाकाव्यों का युग लद गया है और यह समझा जाता रहा है कि आधुनिक परिवेश महाकाव्य के विस्तृत फलक को वहन करने में असमर्थ है। किन्तु फिर भी चन्द कवियों, चिन्तकों तथा दार्शनिकों ने यह प्रमाणित किया है कि आज भी महाकाव्य अपनी गरिमा को बनाए रखते हुए युगीन भावबोध और चिन्तनधारा के साथ सनातन दर्शन को अभिव्यक्ति देने में सक्षम रहा है। उन प्रतिभाशाली चिन्तनशील स्रष्टाओं में आचार्य विद्यासागरजी का विशिष्ट महत्त्व रहा है । एक अन्य कारण से भी यह काव्य महत्त्वपूर्ण है । सन्त काव्य परम्परा की धारा मध्ययुग में अपने चरम उज्ज्वल रूप में प्रवाहित हुई थी तथा युग परिवर्तन के परिणाम स्वरूप सहसा लुप्त हो गई थी, किन्तु प्रस्तुत काव्य ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह धारा बिलकुल खत्म नहीं हुई है और वह तो अनन्त काल से काल प्रवाहों की तह में गुप्तगामिनी की तरह गतिशील रही है तथा आधुनिक काल में युगानुरूप नव रूप धारण कर नवीन गति और लय के साथ फूट पड़ी है। श्री लक्ष्मीचन्द्रजी जैन का कथन सही है : “आचार्य श्री विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है-सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई, लोकमंगल को साधती है।" प्राचीन जैनधर्म की सनातन परम्परा को आधार बनाकर लिखा गया यह काव्य सृजन और चिन्तन की दृष्टि से कई स्तरों पर परम्परा को तोड़ता भी है। महाकाव्य के केन्द्र में एक महान् व्यक्तित्व होता है और महान् कथावस्तु को लेकर काव्य की रचना की जाती है। किन्तु, प्रस्तुत काव्य में तुच्छ समझी जाने वाली माटी है और वह भी मूकमाटी उसी की विकास गाथा काव्य का प्रतिपाद्य है । आचार्यजी ने लघु की प्रतिष्ठापना द्वारा एक दृष्टि से परम्परा को तोड़ा है। मूकमाटी कुम्भकार के अद्भुत अमृतमय संस्पर्श से सार्थक रूप धारण करती है, किन्तु रूप धारण ही उसका अन्तिम लक्ष्य नहीं है। रूप धारण करना, फिर अरूप में विलीन हो जाना-इसी प्रक्रिया में ही वह चरितार्थ होती है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि दैवी कृपा या चमत्कार से माटी का उद्धार नहीं होता । स्वयं तपने पर ही उसका रूप निखर आता है। कुम्भकार उसके लिए आवश्यक साधन उपलब्ध कराकर अनुकूल वातावरण की सृष्टि करता है और सही दिशानिर्देश करता है। माटी को ही निरन्तर कठोर साधना करनी पड़ती है। अग्नि परीक्षा के बाद ही तो चन्दन का सुखद स्पर्श प्राप्त होता है । हर एक को साधना के कठोर पथ पर चलना होगा तभी वह सम्यक् दर्शन प्राप्त करेगा। इस दर्शन को आचार्यजी ने महाकाव्य के विस्तृत फलक पर अंकित किया है। इस महाकाव्य को चार खण्डों में विभक्त किया गया है। प्रथम खण्ड का शीर्षक है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ द्वितीय का-'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं तृतीय का- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और चतुर्थ का - ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।' ये शीर्षक ही साधना पथ के चार महत्त्वपूर्ण सोपानों को संकेतित करते हैं। पहले माटी वर्ण-संकर से मुक्त होकर वर्ण-लाभ कर लेती है। यहाँ वर्ण रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। प्रकृति के सहज रूप धारण करने की प्रक्रिया के फलस्वरूप माटी विशुद्ध रूप धारण कर लेती है। इस तरह अनन्त साधना पथ का आरम्भ बिन्दु है यह अवस्था और यह वह प्रस्थान बिन्दु भी है जहाँ से वह ऊर्ध्व चेतनावस्था की ओर अग्रसर होती है। वर्णलाभ और वर्ण-संकर के अन्तर को बड़े ही मार्मिक ढंग से बताया गया है :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy