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मूकमाटी-मीमांसा :: 135
व्यक्त किया और अपने को प्रासंगिक बना लिया है । शाश्वत ध्वनि है उनकी ये :
"रहिमन या तन सूप है लीजे जगत पछोर ।
हलुकन के उडु जान दे गरुए राख बटोर ॥" कितना सहज और सुलझा हुआ जीवन दर्शन है। पूरी चेतना का आकलन और मनस्विता का निचोड़ है।
आचार्यश्री की व्यक्तिचेतना के यही बिन्दु हैं, जो विस्तीर्ण होकर उनके व्यावहारिक जीवन के वृत्त बनकर काया में समाहित हैं। उन्होंने भारतीय अस्मिता की परम्परा को पुनर्जीवित करके प्राणों की नई संवेदना फूंककर उसे निष्प्राण होने से बचाया है । यही भारत भूमि की सांस्कृतिक प्रखरता है जो हजारों वर्षों की तपस्या के प्रतिफलन में व्याप्त है और हमारी चेतना को अनुप्राणित करने की सामर्थ्य रखती है किन्तु जब किसी कारण से वह नेपथ्य में चली जाती है तब विद्यासागर जैसे मनीषी केवल ज्ञान के सागर ही नहीं बल्कि अनुभूति के आकाश बनकर अवतरित होते हैं और देश के मन:प्राण को एक नया चैतन्य दे जाते हैं। माटी में प्राण फूंककर उसके मौन को मुखर कर देते हैं।
माटी के स्पन्दन में शब्द मुखर हो गए हैं। माटी पर केन्द्रित यह चार खण्डों का काव्य ग्रन्थ महाकाव्य की पारम्परिक परिभाषा में भले ही न आए किन्तु अपने में जिस औदात्त्य को समेटे है उसमें पूरा जीवन समा गया है। इसमें समाहित हो गई हैं जीवन की विविधताएँ और मानवता का वैपुल्य-परिभाषा के वृत्त से हटकर । इसकी व्यंजनाएँ एक विलक्षण रूप में समग्रता को महाकाव्य के परिभाषा वृत्त में आबद्ध कर लेती हैं और हमें महसूस होने लगती है-नए काव्यशास्त्र की आवश्यकता, जीवन की नव्यतम परिणति में। हमारे प्रतिमानों की धूमिलता और उपमाओं की पारम्परिक दृष्टि वैशिष्ट्य के साथ ही निष्प्राण-सी पड़ी मानवीय संवेदनाओं को एक सर्वथा चैतन्य परिणति दी है 'मूकमाटी' के शिल्पी ने । इसमें सन्त के सन्तत्व को कवि के कवित्व की वाणी मिल गई है। सारी उपमाओं को एक नई चमक प्राप्त हो गई है । छन्दों की मुक्ति, किन्तु लय के माधुर्य से सराबोर।
आचार्यप्रवर तपोवन में नहीं हैं किन्तु तपोवन की उस परम्परा को युगानुकूल ढाल कर आज पुनः प्रतिष्ठा दे रहे हैं जो गुरुकुल में पनपी थी किन्तु आज विलीन-सी हो गई है । गुरु का गुरुत्व, सन्त का सन्तत्व और ऋषि की मन्त्र ऋचा ही आज तरुणाई को दिशा दे सकती है । यह पावन वाणी और निश्छल, सात्त्विक अनुभूति ही उनमें शक्तिपात करा सकती है और आत्मावलोकन का मार्ग सुझा सकती है-भीतर झाँकने की विधि । दरअसल हमारी संस्कृति की परिभाषा ही है कि भीतर से बाहर आकर और बाहर को पुन: आत्मसात् कर बाहर व भीतर के सामंजस्य से जो कुछ अर्जित होता है वही तपोनिष्ठा हमारी संस्कृति है। केवल बाहर भागना एक खालीपन है, शून्य में भटकना जैसा । व्यापक जीवन चेतना से जो परिपाक तैयार होता है, वही संस्कृति है । यही सन्देश है, आचार्यश्री का अपनी विलक्षण कृति 'मूकमाटी' में। किन्तु विडम्बना यह है कि हम उस शब्द ध्वनि को नहीं पहचान पाते और न उस स्पन्दन को अपने में ध्वनित करने का प्रयास ही करते हैं जो शब्द-शब्द में अनुगुंजित है। हम केवल उसकी मीमांसा, औचित्य निरूपण, परिभाषा की परख में उलझ जाते हैं। उनके कवित्व को व्यक्ति चेतना और युगबोध के परिप्रेक्ष्य में समझने की चेष्टा ही 'मूकमाटी' का कैलासी स्वर है-शिवत्व की अनुभूति । किन्तु क्या करे अभागा मनुष्य, जो अपने से बेपहचान, दूसरे को पहचानने का प्रयत्न करता है-असफल, निष्फल । ___इस महाग्रन्थ में अवगाहन करना “जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ" की उक्ति को सार्थक करना है तथा मुनिश्री की तपस्वी व्यक्ति चेतना से उद्भूत जीवन चेतना और युग संवेदना को पहचानना है । कैसे मिट्टी की गहराई में बैठकर उस के स्वर को भाँपा है आचार्यप्रवर ने ! निरन्तर परिव्राजन, विचरण और उसी में चिन्तन, मनन ने उनकी