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'मूकमाटी' : : एक सन्तकवि की अनूठी काव्य-यात्रा
प्रो. (डॉ.) देवव्रत जोशी
हिन्दी साहित्य कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, दादू, नानक आदि की महत्त्वपूर्ण काव्य रचनाओं से समृद्ध हुआ है । जात-पाँत इन सन्तकवियों ने कभी नहीं स्वीकारी और "हरि को भजै सो हरि का होई" इनका घोषित वाक्य रहा।
कविता और अध्यात्म का संगम हिन्दी के प्राचीन काव्य का अद्भुत गुण रहा। धीरे-धीरे रीतिकालीन 'नखशिखवाद' और फिर छायावाद - जातिवाद - प्रयोगवाद तक तो अध्यात्म - व्यावहारिक अध्यात्म- यूँ कहें लोकमंगल से सम्पृक्त वाणी के अभाव में हिन्दी कविता चाहे कितनी ही शब्दार्थ सम्पन्नता को प्राप्त हो गई हो, पौराणिक सन्दर्भों में वर्तमान को देखने तथा भविष्य को निर्धारित कर सकने की क्षमता उसमें नहीं रही ।
यद्यपि निराला की 'तुलसीदास' (खण्ड काव्य ) और 'राम की शक्ति - पूजा, धर्मवीर भारती का 'अन्धायुग, नरेश मेहता की काव्यकृति 'संशय की एक रात' आदि रचनाओं में ऐतिहासिक और मायथालॉजिकल (Mythological) तों की प्रचुरता है, किन्तु श्री अरविन्द की 'सावित्री, माइकेल मधुसूदन दत्त की 'मेघनाद वध' जैसी कालजयी कृतियों का हिन्दी, भारतीय भाषाओं में अभाव ही रहा ।
यह आश्चर्यजनक और साथ ही विस्मयकारक सत्य है कि आज के विशृंखलित मानव मूल्यों वाले समाज में, जहाँ हिंसा, मारकाट, बलात्कार, आगज़नी और परस्पर अविश्वास का बोलबाला है, एक जैन सन्त ने 'मूकमाटी' काव्य की रचना करके हमें सुखद परिवर्तन का संकेत दिया है । वास्तव में 'मूकमाटी' महाकाव्य का सृजन आधुनिक भारतीय साहित्य की उल्लेखनीय उपलब्धि है ।
महाकाव्य
यह निश्चित ही एक महाकाव्य है। प्राकृतिक परिदृश्य, स्वाभाविक रूप से आए अलंकार और बिम्ब-प्रतीकयोजना, विराट् कल्पना, लगभग नायक-नायिकाहीन इस महाकाव्य में जो कल्पनाशीलता और उदात्त भाव अन्तर्निहित हैं, वे एक श्रेष्ठ काव्य की कोटि में इसे रखते हैं। महाकाव्य की रूद, पारिभाषिक परम्पराओं को नकारती और ध्वस्त करती 'मूकमाटी' अपने लिए मानों स्वयं ही नए प्रतिमान निर्मित करती है ।
यों, काव्य के नायक 'गुरु' हैं, किन्तु स्वयं गुरु के लिए अन्तिम नायक हैं अरिहन्त देव ।
माटी को नए रूप, नए परिदृश्य में प्रस्तुत करने की मौलिकता
'मूकमाटी' को सन्तकवि ने चार खण्डों में विभाजित किया है - खण्ड १. 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ; खण्ड २. 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ;' खण्ड ३. 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन; ' खण्ड ४. 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।'
वस्तुत: मिट्टी की महिमा तो अधिकांश कवि, लेखकों-रचनाकारों ने गाई है, तो फिर आचार्य विद्यासागर ने ऐसे पिटे-पिटाए विषय पर खण्डकाव्य या महाकाव्य की रचना क्यों की ? यह प्रश्न मुझसे कइयों ने पूछा । प्रश्न तीखा है किन्तु विचारपूर्वक सोचें तो कवि का अभिप्रेत मात्र माटी की महिमा का वर्णन करना ही नहीं है। मिट्टी मूक है, अतः उसकी अन्तर्वेदना भी मार्मिक है। दूसरा कारण, जैन दर्शन का अनुसरण / अनुकरण करते हुए भी कवि का चिन्तन सार्वभौम, सार्वकालिक और 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' की अभीप्सा से पूरित है ।
अब तक हिन्दी आलोचकों की दृष्टि या तो शुद्ध हिन्दुवादी रही है या तथाकथित वामपंथी और प्रगतिशील ।