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62 :: मूकमाटी-मीमांसा
झारी, तश्तरी तथा अन्य भोगलक्ष्यी पात्र भी कुम्भ और सेठ के व्यवहार और उपदेश से योग की ओर अग्रसर होते हैं। योग मार्ग ही सफलता का मार्ग बन जाता है ।
भोग को छोड़कर योग को अपनाना इतना सहज, सरल मार्ग नहीं है। इस रास्ते पर रुकावटें हैं, संकट हैं। जैन साहित्य में प्राय: यह देखा जाता है कि योग के रास्ते पर बढ़नेवाले के सामने हमेशा संकटों की राशि खड़ी रहती है। योगी जीव की जितनी शक्ति होती है, वह उतना ऊपर उठता है । आगे की यात्रा के लिए जब वह पुनः जन्म लेता है, तब उसके साथ भोगी जीव भी, खलत्व के कार्य के हेतु, जन्म लेता है । 'मूकमाटी' में कुम्भ के साथ आतंकवाद का योग इस तथ्य को स्पष्ट करता है ।
लेकिन ऊर्ध्वकामी साधक के लिए इन सब पीड़ाओं को सहना अनिवार्य ही तो होता है। फिर भी उसे बिना क्रुद्ध हुए, मनसा भी हिंसा भाव बिना रखे आगे बढ़ना होता है। इसमें तनिक भी गलती हुई कि फिसलन, निश्चित और यातनाओं का दौर बढ़ा । कुम्भ ने गलती से स्वर्ण कलशी पर व्यंग्य भाव व्यक्त किया और उसे अनगिनत आपदाओं से जूझना पड़ा ।
साधना का रास्ता कठिन तो होता ही है, फल तो प्रदीर्घ परिश्रम के पश्चात् ही प्राप्त होता है। साधना के मार्ग कठिनता को आचार्यजी ने सही ढंग से बताया है। साधना के एक-एक सोपान को पार करते समय हर कदम पर स्खलन का खतरा रहता है। साधक को फिर भी न डरना चाहिए और न डिगना । प्राप्त समय का सदुपयोग करके साधक को अपने मार्ग पर जल्दी-से-जल्दी आगे बढ़ना चाहिए, अनुकूल अवसर का इंतज़ार करने के बहाने रुकना नहीं चाहिए और न प्रतिकूलता का द्वेष के साथ मुकाबला करना चाहिए। इस रास्ते पर प्रगति के अभाव में कभी-कभी साधक का उत्साह ठण्डा भी पड़ता है, लेकिन उसे समझ लेना चाहिए कि यह स्थिति भी उसके लिए अभिशाप नहीं । मीठे ही नहीं, खट्टे दही से भी नवनीत तो मिलता ही है। और संघर्षमय जीवन का अन्त हमेशा हर्षमय होता ही है। धरती के इस उपदेश में साधना मार्ग की जटिलता का सटीक विवरण प्राप्त होता है ।
ऊर्ध्वकामी को तो हमेशा यातनाएँ भुगतनी पड़ती ही हैं । यातनाओं, पीड़ाओं से भागनेवाला कभी ऊपर चढ़ नहीं सकता। आचार्यजी ने मछली की ऊर्ध्वगमन कामना के वर्णन द्वारा यह स्पष्ट किया है कि शाश्वत सत्य की खोजी मछली जान पर खेलकर ही प्राप्तव्य को पा सकती है, उसका परिवार मोह में फँसकर पानी में ही बना रहता है। लेकिन ऊर्ध्वकामी एक मछली अपने आवास को और सगे सम्बन्धियों को छोड़ कर अपने साधना पथ पर चल पड़ती है । उसमें ईश्वर प्राणों की आस पैदा हुई, वह कृतसंकल्प बन गई । अमृत गृह की प्राप्ति से उसका भय नष्ट हो गया, उसने जीवन में विजय पाई । संसाररूप अन्धकूप में रहनेवाली मछलीरूप जीवात्मा की ऊर्ध्वयात्रा को मुनिजी ने जिस संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है, वह एक वीतरागी के योग्य ही है। क्या यह आचार्यश्री के जीवन का रूपक तो नहीं है ? इस प्रकार प्रबन्धकाव्य के आरम्भ से अन्त तक मुनिजी ने साधना पथ के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इससे कृति में आद्योपान्त एक गम्भीरता और दार्शनिकता स्पष्ट होती है । दार्शनिकता की अभिव्यक्ति जैन दर्शन के आधार पर हुई है। इस दर्शन के मूल सूत्रों का तो इसमें पूरा निर्वाह हुआ ही है, साथ-साथ जैन आचार का भी यथास्थान चित्रण किया गया है।
श्रमण परम्परा शारीरिक क्लेश पर तथा अपने तपोबल पर नि:श्रेयस् को पाने का मार्ग बताती है। यह मानती है कि किसी भी बात के अनेक पक्ष होते हैं (अनेकान्तवाद), अतः भिन्नमतसहिष्णुता एवं विचार तथा आचार के पर भी अहिंसा का पालन अनिवार्य है। धरती के उपदेश में यह सार ग्रथित है तथा माटी के व्यवहार से इसे प्रत्यक्ष में प्रस्तुत भी किया है। माटी का कथन है : "पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है " (पृ. ३३) । यह इस कृति का सूत्र है, जो स्पष्ट करता है कि संघर्षमय जीवन का अन्त हमेशा हर्षमय होता है ।
इस मूल संवेदना ने आगे चलकर प्रसंगों का केवल निर्माण तथा वर्णन ही नहीं किया, बल्कि स्थान-स्थान पर उसकी दार्शनिक व्याख्याएँ भी प्रस्तुत की हैं। अत: पूरी रचना में दर्शन, अध्यात्म तथा नीति वचनों की अपूर्व बुनावट