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'मूकमाटी' : शब्द से शब्दातीत तक जाने की यात्रा
आचार्य श्री विद्यासागरजी से भूतपूर्व सम्पादक डॉ. प्रभाकर माचवे की 'मूकमाटी' पर केन्द्रित बातचीत स्थान- 'त्यागी भवन', श्री दिगम्बर जैन मोठे मन्दिर के निकट, इतवारी बाजार, नागपुर, महाराष्ट्र चैत्र शुक्ल नवमी - रामनवमी दिवस, वीर निर्वाण संवत् 2517, विक्रम संवत् 2048, रविवार, 24 मार्च 1991 ईस्वी [ संकेत - प्र. मा. – प्रभाकर माचवे, आ. वि. – आचार्य विद्यासागर ]
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प्र.मा.
'मूकमाटी' शीर्षक ग्रन्थ या महाकाव्य लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से और कैसे हुई ? क्यों हुई ? मैंने यह इसलिए पूछा कि जैन पुराख्यानों में, कथानकों में वसुन्धरा या पृथिवी के प्रति, मिट्टी के प्रति ऐसी क्या बात थी जिसने आपको इस तरह से इतना बड़ा महाकाव्य लिखने की प्रेरणा दी ?
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आ. वि. - हाँ, हमने सोचा कि काव्य और उसमें भी अध्यात्मपरक काव्य का मूल विषय सत्ता - महासत्ता हो, उसे नाना उचित होगा । अध्यात्म की नींव इसी महासत्ता पर रखी जा सकती है, जो व्यापक होती है । इसे अन्त:प्रेरणा ही कहा जा सकता है। 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ ( गाथा ८) में कहा गया है :
“सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ।।'
यानी सभी पदार्थों में सत्ता विद्यमान रहती है। वह विश्व यानी अनेक रूप है, अनन्त पर्यायात्मक है, उत्पादव्यय - धौव्यशाली है और वह एक है तथा प्रतिपक्षधर्मयुक्त है।
प्र. मा. - यह महासत्ता क्या अणु से आरम्भ होती है ?
आ. वि. - हाँ, वह अणु में भी है और महत् में भी है। वह सब में व्याप्त है। वह गुण में भी है और पर्याय में भी है । वह
गुणवत् भी है और पर्यायवत् भी है। वह अपने आप में द्रव्यवत् भी हो सकती है यानी सर्वांगीण भी हो सकती
है । समष्टि या व्यष्टि से कोई मतलब नहीं - वह सर्वव्यापी है । जहाँ कहीं भी है, उस सबको सत् से जोड़ते चलना चाहिए ।
प्र. मा.- जब आप 'सत्ता' को 'द्रव्य' कहते हैं तो वह क्या और कैसा होता है ?
आ. वि.-‘द्रव्य' यहाँ उसको कहते हैं जो 'गुण' व 'पर्याय' का आधार होता है। [('गुणपर्ययवद् द्रव्यम्', तत्त्वार्थसूत्र, ५/३८) । यह द्रव्य भी सत् है ('उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थसूत्र, ५/३०) यानी यहाँ प्रत्येक वस्तु में सत्ता विद्यमान है और वस्तु उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य युक्त है । वस्तु उत्पाद-व्ययशाली भी है और स्थिर भी। वह नित्य भी है और अनित्य भी । देश - कालजन्य परिणमनशील धर्म 'पर्याय' है और वस्तुसत्ता में एक रस विद्यमान रहने वाला धर्म 'गुण' है ।] तो 'द्रव्य' जो है, वह जीव के रूप में रह सकता है एवं अजीव के रूप में भी हो सकता है। लेकिन 'सत्' जो है वह जीव और अजीव - उभयत्र विद्यमान है। ऐसे ही एक तत्त्व को प्रतीक बनाकर हमने सोचा कि इस माध्यम से सारभूत जो है, वह सब कहा जा सकता है।
प्र. मा. - अणु से मनु तक की जो यात्रा है, मृण्मय से चिन्मय तक की जो यात्रा है - जिसको हम मेटामॉर्फोसिस/
ट्रॉन्स्फॉर्मेशन (Metamorphosis / Transformation) यानी रूपान्तरण कहते हैं, वह यात्रा किस प्रकार सम्पन्न होती है ? क्यों होती है ? ये आपके मत से क्या है ? यह कैसे गया ? यह जो घट है - मिट्टी का