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________________ 20 :: मूकमाटी-मीमांसा से बाँध कर ही सिरजा है : "अपने हों या पराये,/भूखे-प्यासे बच्चों को देख माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता/बाहर आता ही है उमड़ कर, इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है-/उस दूध को।” (पृ. २०१) संस्कृति मात्र का उद्देश्य ही है मानवता की भलाई के लिए आगे बढ़ना । 'मूकमाटी' इसी उद्देश्य से अनुप्राणित है। हिंसा को रोकने का भरसक प्रयत्न करती है यह कृति और तप-संयम के आदर्शों को अपने ढंग से उभारती है । इसका बड़ा ही सहज उद्घाटन 'मशाल' और 'दीपक' के माध्यम से हुआ है : “मशाल के मुख पर/माटी मली जाती है/असंयम होता है, इसलिए। मशाल से प्रकाश मिलता है/पर अत्यल्प!/उससे अग्नि की लपटें उठती हैं... मशाल अपव्ययी भी है,/बार-बार तेल डालना पड़ता है/...मशाल की अस्थिरता... दीपक संयमशील होता है/बढ़ाने से बढ़ता है, और/घटाने से घटता भी। ...मशाल की अपेक्षा/अधिक प्रकाशप्रद है यह ।” (पृ.३६८-३७०) दोष, गलती, बुराई और अकल्याण से तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक उसकी एवज़ में सद्गुणों की पुष्टि न करे । हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोषों से बिना बचे सद्गुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। जिस-जिस दोष को दूर करना है उस-उस दोष के विरोधी सद्गुण को जीवन में स्थान देते जाना ही एकमात्र मार्ग है । हिंसा को दूर करना हो तो प्रेम आत्मीयता के सद्गुण को जीवन में व्याप्त करना होगा। बिना सत्य बोले, सत्य बोलने का बिना बल पाए असत्य से निवृत्ति कैसे होगी ? परिग्रह और लोभ से बचना हो तो सन्तोष और त्याग जैसी प्रवृत्तियों में अपने को खपाना होगा । यही तो बोध है : "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं,/...बोध का फूल जब ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है।"(पृ.१०६-१०७) जैसा कि 'मूकमाटी' के 'प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने निवेदित किया है : "...दर्शन आरोपित नहीं लगता, अपने प्रसंग और परिवेश में से उद्घाटित होता है।" वास्तव में 'मूकमाटी' का कथ्य तत्त्व-दर्शन से पग-पग पर सम्पृक्त है । जिन दार्शनिक तत्त्वों को ऊपर विवेचित किया गया है वे इस लेखक के वे उद्वेग हैं जो 'मूकमाटी' के अध्ययन के समय मथित होकर निकल आए, आरोपण मेरा है यहाँ, आचार्यजी का नहीं। कथ्य की सहज और जीवन-दर्शन की सरल अभिव्यक्ति 'मूकमाटी' को मुखर बनाती है । अभिव्यक्ति की चर्चा करें तो 'भाषा' या शब्द' की चर्चा करनी ही होगी। 'मूकमाटी' की अभिव्यक्ति शैली इतनी सशक्त, प्रवाहमय और पारदर्शी क्यों है ? इसका मूल कारण है 'भाषा का सहज सम्प्रेषणीय प्रयोग ।' कहीं यह गद्यमय काव्य बन कर हमें भावसागर में डुबाती है तो कहीं काव्यमय गद्य के रूप में हमारे भीतर स्वयं डूब जाती है । भाषा की यह सहजता कभी-कभी तो पाठक से सीधा संवाद करती-सी लगती है । यह सहजता वैचारिक जटिलता को भी सहज अभिव्यक्त करती है । 'मूकमाटी' की इस अभिव्यक्ति को निम्नलिखित भाषा-प्रयोग के स्तर पर विवेचित करने का प्रयत्न आइए करें :
SR No.006156
Book TitleMukmati Mimansa Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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