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मूकमाटी-मीमांसा :: 513
व्यवहार नय का अर्थ है विश्वकल्याण और निश्चय नय का अर्थ है-आत्मकल्याण । आत्मकल्याण के लिए दोनों नयों का सहारा लेना होगा । आत्मसुरक्षा के लिए निश्चय नय और दूसरों को समझाने के लिए व्यवहार नय का प्रयोग होना चाहिए। नय शब्दभंगी है। प्रवचन पंचामृत (१९७९)
इस उपखण्ड में मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान में प्रदत्त पाँच प्रवचन संकलित हैं - जन्म : आत्म - कल्याण का अवसर, तप : आत्म-शोधन का विज्ञान, ज्ञान : आत्म-उपलब्धि का सोपान, ज्ञान कल्याणक (आत्मदर्शन का सोपान) मोक्ष : संसार के पार। जन्म : आत्म-कल्याण का अवसर : जन्म-कल्याणक के समय क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र और करोड़ों की संख्या में देव लोग आते हैं । पाण्डुक शिला पर बालक तीर्थंकर को ले जाकर जन्म कल्याणक मनाते हैं । अभिषेक, पूजन और नृत्यगान आदि करते हैं। रत्नों की वृष्टि करते हैं। जिसने आज जन्म लिया, यह जन्म लेने वाली आत्मा भी सम्यग्दृष्टि है। उसके पास मति, श्रुत और अवधिज्ञान भी है । जिनशासन में पूज्यता वीतरागता से आती है, इसलिए जन्म से कोई भगवान् या तीर्थंकर नहीं होता। अत: इस समारोह में मुनि लोग नहीं आते । जन्म शरीर का होता है, आत्मा का नहीं। वह एक पौद्गलिक रचना है । पूरण और गलन इसका स्वभाव है। तप : आत्म-शोधन का विज्ञान : यह वह शुभ घड़ी है जब मुनि आत्मसाधना प्रारम्भ करके परमात्मा के रूप में ढल रहे हैं । वे भेद-विज्ञान प्राप्त कर चुके हैं । यही भेद-विज्ञान उन्हें केवलज्ञान कराएगा । यह आत्म-साधना ही है जो केवलज्ञान तक पहुँचती है । भेदज्ञान जब जाग्रत हो जाता है तभी हेय का विमोचन और उपादेय का ग्रहण होता है । हेय का विमोचन होने पर ही उपादेय की प्राप्ति सम्भव है । अभी गन्तव्य दूर है, पर ट्रेन में बैठ गए हैं। अभी दो स्टेशनों तक और रुकना पड़ेगा। अभी तो यह केवलज्ञान से पूर्व तपश्चरण की भूमिका है। अभी तो तन, वचन और मन तपेगा, तब आत्मा शुद्ध होगी । अभी तो प्रव्रज्या ग्रहण कर परिव्राज हुए हैं, दीक्षित हुए हैं । आज सर्व परिग्रह का त्याग कर भव सन्तरण के लिए इस जीव का मोक्षमार्ग पर आरोहण हुआ है। ज्ञान : आत्म-उपलब्धि का सोपान : यह वह समय है जब मुनिराज भगवान् बनने का पुरुषार्थ कर रहे हैं। एक भक्त की तरह भगवान् भक्ति में लीन होकर आत्मा का अनुभव कर रहे हैं । अब उन्हें संसार की नहीं, प्रत्युत स्व-समय की प्राप्ति की लगन लगी हुई है। समय की व्याख्या पहले की जा चुकी है। ज्ञान कल्याणक (आत्म-दर्शन का सोपान) : पूर्व कल्याणक में मुनिराज हेय को छोड़ चुके हैं और जो साधना के माध्यम से छूटने वाले हैं उनको हटाने के लिए साधना में रत हुए हैं। जो ग्रन्थियाँ शेष रह गई हैं, जो अन्दर की निधि बाहर प्रकट होने में अवरोध पैदा कर रही हैं, उन ग्रन्थियों को तप के द्वारा हटाने में लगे हैं। आज मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, पर केवलज्ञान मुक्ति नहीं है । संसारवर्धक भावों को हटाने के लिए आवश्यक है कि मोह और योग हटे। योग आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन है और मोह अर्थात् विकृत उपयोग । योग से परिस्पन्दन और मोह से कर्म-वर्गणाएँ आकर चिपक जाती हैं। मोह के अभाव में वे आकर भी चली जाती हैं। मोक्ष : संसार के पार : मुक्ति परम पुरुषार्थ से प्राप्त हुई है । इसके पहले परम पुरुषार्थ सम्पन्न नहीं हुआ था। यह परम पुरुषार्थ ही है जिससे अव्यक्त शक्ति व्यक्त हुई और मोक्ष की प्राप्ति हो गई। आत्मा विभाव का त्याग करता हुआ स्वभाव में प्रतिष्ठित हो गया और स्वभाव से ऊर्ध्वगमनशील आत्मा यथास्थान पहुँच कर प्रतिष्ठित हो गया।