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________________ मूकमाटी-मीमांसा : : 507 भगवान्, श्री शीतलनाथ भगवान्, श्री श्रेयांसनाथ भगवान्, श्री वासुपूज्य भगवान्, श्री विमलनाथ भगवान्, श्री अनन्तनाथ भगवान्, श्री धर्मनाथ भगवान्, श्री शान्तिनाथ भगवान्, श्री कुन्थुनाथ भगवान्, श्री अरहनाथ भगवान्, श्री मल्लिनाथ भगवान्, श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान्, श्री नमिनाथ भगवान्, श्री नेमिनाथ भगवान्, . श्री पार्श्वनाथ भगवान् एवं श्री महावीर भगवान् का सर्वविध स्तवन, वन्दन, चरणाभिनन्दन किया गया है । भगवान् महावीर यदि क्षीर हैं तो आचार्यश्री अपने को नीर मान रहे हैं और उनकी विनती है कि वे इस प्रार्थयिता को अपने से एकात्म कर लें । ७. पूर्णोदय - - शतक ( १९ सितम्बर, १९९४) इस संकलन में आचार्यश्री द्वारा श्रावकों और मुमुक्षुओं के लिए तत्त्व की बात बताई गई है, तरह-तरह के उपदेश दिए गए हैं, करणीय - अकरणीय का सन्देश दिया गया है, पाप-पुण्य और दोनों से ऊपर उठने का सन्देश - निरूपण हुआ है ताकि साधकों में पूर्णता का उदय हो सके । प्रस्तुत संकलन का भी शुभारम्भ गुण-गण-घन के प्रति प्रणिपात से हुआ है। वन्दन, नमन, समर्पणभाव की अजस्र भावधारा के प्रवाहण के बाद आचार्यश्री ने उपदेशामृत की धारासार वृष्टि की है। उन्होंने बताया है कि स्वार्थ और परमार्थ का ही यह परिणाम था कि कौरव रौरव में गए और पाण्डव शिवधाम गए। पारसमणि के तो स्पर्श से लोहा सोना बनता है परन्तु भगवान् पारसनाथ के दर्शन मात्र से मोह का विनाश और पारमार्थिक कल्याण हो जाता है, उपासक स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है । नाग स्थल पर ही मेंढक को निगलता है, जल में नहीं । इसी प्रकार जो भी निज-स्वभाव से बाहर गया उसे कर्म दबा देता है। उनका उपदेश है कि यदि आत्म-कल्याण चाहते हो तो देह-गेह का नेह छोड़ दो। यह स्नेह (तैल) ही है जिसके जलने से उजाला होता है। यदि दूसरों के आँसुओं को देखकर द्रष्टा की आँखें न भर जायँ तो उसका मात्र पूछना और पोंछना किस काम का ? साधक आत्म-कल्याणार्थी को चाहिए कि वह बड़े-बड़े पाप न करे और बड़ी-बड़ी भूल भी न करे ताकि उसकी पगड़ी की लाज बनी रहे । उनका उपदेश है कि साधु-सन्तों द्वारा प्रणीत शास्त्रों का स्वाध्याय किया जाय ताकि मोह नष्ट हो और प्रतिष्ठा प्राप्त हो । देश वही मज़बूत है जिसमें धर्म की सम्पत्ति हो, भवन वही टिक सकता है जिसकी नींव मज़बूत हो । गलती देखकर यदि हम सही पाने को विकल हो जायँ तो वह गलती भी किसी दृष्टि से उपादेय है। गिरना भी सर्वथा व्यर्थ नहीं है यदि किसी गिरे को देखकर हम उठ जायँ तो वह गिरना भी उठाने में योगदान करता है। हृदय तो मिला, पर यदि उसमें दया नहीं है और चिरकाल तक अदय ही बना रहा, तो इससे बड़ी चिन्ता की और कोई बात नहीं । प्रार्थना की गई है प्रभु से कि वह अ - दया का विलय करे। दयावान् की चिर अभीप्सा है कि भले लौकिकता से दूर पारलौकिकता मिले या न मिले, पर लोकहित की कामना और तदनुसार आचरण निरन्तर बना रहे । यही श्रेय और प्रेय है । चेतना के शोधन का यही मार्ग है । ८. सर्वोदय - शतक (१३ मई, १९९४) पूर्वोक्त अन्य संकलनों की तरह इसका भी शुभारम्भ श्री गुरुपाद वन्दन तथा माँ भारती के स्तवन - वन्दन के साथ किया गया है। आचार्यश्री की प्रतिश्रुति है : "सर्वोदय इस शतक का, मात्र रहा उपदेश । देश तथा परदेश भी, बने समुन्नत देश ॥ ५ ॥ " 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' - की जगह ' सबजन सुखाय सबजन हिताय' का संकल्प कहीं अधिक सात्त्विक और सुखकर है। उनकी विचारणा है कि वे सबमें गुण ही गुण सदा खोजते रहें और अपने भीतर देखते रहें कि दाग कहाँ -
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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