SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 486 :: मूकमाटी-मीमांसा अवस्था तथा तदर्थ माता-पिता की अनुमति न मिलने पर भी बालक विद्याधर इस संस्कार के लिए सन्नद्ध होकर प्रथम पंक्ति में बैठ गया और प्रथम पूँजीबन्धन उसी का सम्पन्न हुआ। विद्याधर की रुचि और प्रतिभा विविधायामी थीखेलकूद, शतरंज, चित्रनिर्माण आदि में भी अवस्थानुरूप अच्छी गति थी। हिंसा और आतंकवाद का कट्टर विरोधी बालक गाँधी और नेहरू से भी प्रभावित था। इन सबके साथ उनकी धार्मिक और आध्यात्मिक वृत्ति उत्कर्ष की ओर इस प्रकार बढ़ रही थी कि माता-पिता को यह चिन्ता सताने लगी थी कि लड़का कहीं हाथ से निकल न जाय । सोलह वर्ष की अवस्था में तो मन्दिर जाने के साथ शास्त्र स्वाध्याय और प्रवचन का क्रम भी गति पकड़ने लगा। सभा में प्रश्नोत्तर भी होते और निर्विकल्प ज्ञान प्राप्ति के लिए शंका समाधान भी होते । साता वेदनीय के आसव के हेतुओं में भूतव्रत्यनुकम्पा' भी एक है-जिसका उद्रेक उनके आचरण में स्पष्ट लक्षित होता था। प्रसिद्ध है कि नौकर द्वारा बैल को पिटते देख स्वयम् को उसके स्थान पर आपने अपने को लगा लिया। ग - जैन प्रस्थान का धार्मिक परिवेश जहाँ कहीं भी वे मुनियों का आगमन सुनते, वहाँ पहुँच जाते थे। एक बार सुना कि बोरगाँव में मुनि श्री नेमिसागरजी ने समाधिमरण का व्रत ले रखा है, सो वहाँ पहुँच गए और उनकी सेवा-शुश्रूषा में रम गए । इस प्रकार पारिवारिक, सारस्वत संस्थानों के परिवेश तथा अनेक मुनि महाराजों के प्रति गहरा लगाव उनमें वैराग्यभाव को तीव्र कर रहा था । अब उनकी चेतना में किसी ऐसे संघ की खोज की अभीप्सा जगी, जो सर्वथा दुर्निवार थी । इस अभीप्सा से माता-पिता की अनुमति के बिना ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के अडिग संकल्पवश वे जयपुरस्थ आचार्य श्री देशभूषणजी के पास बीस वर्ष की अवस्था में ही पहुंच गए। उनकी वैराग्यवृत्ति को हवा मिली श्री गोपालदास बरैया द्वारा प्रणीत 'जैन सिद्धान्त प्रवेशिका' के कण्ठस्थीकरण से । श्री विद्याधर में गुरुभक्ति भी अद्भुत थी। मुनिवरों की सेवा प्रत्येक स्थिति में बड़े मनोयोग से करते थे। इन सब सोपानों पर चढ़ते-चढ़ते अन्तत: उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत मिल ही गया। परिवार से निकल जाने का क्लेश परिवार जन को था ही, पर वह इनके अडिग संकल्प के आड़े नहीं आ सका । इक्कीसवें वर्ष में विद्याधर अब प्रविष्ट हो चुके थे। आचार्यप्रवर श्री देशभूषणजी के संघ में शरीक होकर चूलगिरि, जयपुर, राजस्थान से उनके साथ श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक पहुँचकर भगवान् गोमटेश्वर के महामस्तकाभिषेक के पवित्र परिवेश में वे भीतर से भींग गए। उपसर्ग और परीषहों पर वो निरन्तर विजय लाभ करते ही गए। स्तवनिधि क्षेत्र से श्री विद्याधर बम्बई होते हुए अजमेर, राजस्थान पहुँचे । श्री कजौड़ीमल के घर आए और उनके आग्रह पर आहार ग्रहण किया। फिर उन्होंने समीपस्थ मदनगंज-किशनगढ़ में विराजमान मुनिवर्य श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में उपस्थित होने का अपना संकल्प सुनाया। कजौड़ीमलजी उन्हें वहाँ ले गए और विद्याधरजी उनका दर्शन कर धन्य-धन्य हो गए। गुरुवर ने परीक्षा लेने के निमित्त पूछा कि वह यहाँ-वहाँ घूमते रहने की प्रवृत्तिवश पुन: वहाँ से लौट तो नहीं जायगा? इस पर श्री विद्याधरजी ने सवारी के उपयोग करने का त्यागकर 'ईर्या चर्या' ग्रहण करने की बात की। गुरुदेव विस्मयान्वित हो उठे। अब वे शास्त्राभ्यास और गुरुसेवा में डूबते गए । मूलत: कन्नड़ भाषाभाषी एवं नवमी कक्षा तक विद्याध्ययन करने वाले विद्याधर के संस्कृत और हिन्दी भाषा के ज्ञान की कमी को दूर किया पं. महेन्द्रकुमारजी ने । ब्रह्मचारी विद्याधर अभी २२ वर्ष का भी नहीं हुआ था-पर उसकी अगाध गुरुनिष्ठा, शास्त्राभ्यास और दृढव्रत का भाव देखकर गुरुदेव इतने प्रभावित हुए कि अजमेर, राजस्थान में विद्याधर को सीधे (क्षुल्लक, ऐलक दीक्षा की सीढ़ियों को पारकर) मुनि दीक्षा दे दी। केशलुंच हो चुका था। दीक्षा संस्कारों के उपरान्त आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि. सं. २०२५, ३० जून, १९६८ को वे विद्याधर से मुनि विद्यासागर हो गए।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy