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________________ परिशिष्ट : प्रथम आचार्य श्री विद्यासागर : व्यक्तित्व, जीवन-दर्शन और रचना-संसार आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी खण्ड एक : व्यक्तित्व का विकास और उसका परिचय व्यक्तित्व व्यक्ति का सर्वस्व है, जिस पर आत्मवादी चिन्तन के आलोक में तो विचार किया ही जाता हैविज्ञान के शाखा विशेष मनोविज्ञान के आलोक में भी विचार किया गया है । विज्ञान व्यावहारिक सत्ता पर ही विचार करता है, कारण वह अपने परिनिष्ठित ज्ञान का ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष से सत्यापन करता है । पारमार्थिक सत्ता या सत्ता के पारमार्थिक पक्ष का परीक्षण या जानकारी उसकी प्रक्रिया में है ही नहीं। मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिवेश और अनुवंश के गुणन का प्रतिफल मानता है, आत्मवादी उसकी सम्भावनाओं को अपरिमेय बताता है - वे ईश्वरत्व पर्यवसायिनी हैं। इसीलिए माना गया है : “नरत्वं दुर्लभं लोके"। मनोविज्ञान मानता है कि "व्यक्तित्व व्यक्ति के व्यवहार की वह व्यापक विशेषता है जो उसके विचारों और उनको प्रगट करने के ढंग, उसकी अभिवृत्ति और रुचि, कार्य करने के उसके ढंग और जीवन के प्रति उसके व्यक्तिगत दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रकट होती है" (राबर्ट एस. वुडवर्थ)। व्यक्तित्व शारीरिक मनोविज्ञान और सामाजिक मनोविज्ञान का संगमस्थल है । इनका मिलन कभी-कभी वैचारिक द्वन्द्व खड़ा कर देता है । एक पक्ष कहता है कि व्यक्तित्व के निर्माण में केवल जैविक तत्त्व काम करते हैं, जबकि दूसरा सामाजिक तत्त्वों की बलपूर्वक दुहाई देता है। सामाजिक तत्त्वों के मूल में वंशानुक्रम और परिवेश का प्रभाव सम्मिलित है और शारीरिक कारण वंशानुक्रम और परिवेश-दोनों का परिणाम हो सकता है। अभिप्राय यह कि किसी के व्यक्तित्व पर विचार करते समय वंशानुक्रम और परिवेश का ध्यान रखना आवश्यक है। दोनों की परस्पर अन्तःक्रिया भी इस सन्दर्भ में उल्लेख्य हैं। वंशानक्रम से जो संस्कार मिलते हैं, परिवेश में उनका विकास होता है। आत्मवादी जैन मानते हैं कि जीव चिन्मय है । ज्ञान उसका साक्षात् लक्षण है। वह निसर्गत: अनन्तज्ञान विशिष्ट है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य जैसे अनन्त चतुष्टय स्वभावत: विद्यमान हैं, पर कषायजन्य पौद्गलिक कर्मों से आवृत हैं । तप और ध्यान से कर्मों का संवर और निर्जरा हो जाती है । इस प्रकार मनोविज्ञान केवल व्यावहारिक व्यक्तित्व का और आत्मवाद पारमार्थिक स्वरूप का विचार करता है। मनोविज्ञान मानव व्यक्तित्व को अनुवंश और परिवेश का गुणनफल मानकर सीमा बनाता है, आत्मवाद इन सबको आत्मसात् कर और ऊपर जाता है और उसे अपरिमेय निरूपित करता हुआ जोड़-गुणा की सीमा से एकदम परे उठा ले जाता है । आचार्य श्री विद्यासागरजी के व्यक्तित्व या उनके स्वभाव के उभयविध रूपों पर हम विचार करेंगे। आचार्य श्री विद्यासागरजी का आनुवांशिक परिचय लोक में मानव-जन्म की उपलब्धि दुर्लभ है क्योंकि मानवेतर योनियों में उन अपरिमेय ऊर्ध्वगामिनी सम्भावनाओं का द्वार अनावृत नहीं होता जो इस योनि में होता है। पर यह सम्भावना उपलब्धि तभी बनती है जब विद्या धार्यमाण होती है। पता नहीं किन अज्ञात कारणों से माता-पिता ने वन्द्यपाद शिशु का नामकरण 'विद्याधर' किया, पर नाम तप, ध्यान और शास्त्रनिष्ठापूर्वक अर्जित विद्या से अन्वर्थ बन गया। विद्वान् हो मानव और उसमें सर्जनात्मक कवित्व का उदय हो तो सोने में सुगन्ध की स्थिति आ जाती है, पर कविता भी कविता तब होती है जब प्रतिभानुरूप शक्ति विद्यमान हो। आचार्यश्री में ये सारे पक्ष अपनी गरिमा में उच्चतम शिखर तक पहुँचे हुए हैं। ठीक ही कहा है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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