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xl:: मूकमाटी-मीमांसा
से अपनी व्यथा-कथा प्रस्तुत करता है । उसमें विषय के प्रति विराग भाव ही तो है । स्वरूपायत्ति लक्षण शान्त की स्थिति में जाने की अदम्य अभीप्सा का इज़हार करता है सम्भावना के रूप में 'माटी' में निहित घट । माटी कहती है :
" इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की च्युति कब होगी ? /बता दो, माँ इसे !" (पृ. ५)
कृति के अन्त में वही माँ सत्ता 'शान्त' रस में प्रतिष्ठित घट साधक को सम्बोधित करती हुई कहती है :
"... सो / सृजनशील जीवन का / वर्गातीत अपवर्ग हुआ । " (पृ. ४८३)
निष्कर्ष यह कि आलोच्य कृति में कवित्व के विभिन्न स्रोत विद्यमान हैं। यह अवश्य है कि यह सन्तों का काव्य है जहाँ मूल्यगान की चेतना उग्र रहती है, आध्यात्मिक चेतना की सुगन्ध आद्यन्त व्याप्त रहती है, वही 'हित' है, उससे युक्त अर्थात् 'सहित' का ही भाव यहाँ साहित्य की अपेक्षित शर्त है । रसराज से भिन्न शान्तेतर रस की पार्यान्तिक अनुभूति सम्भव है । अत: जिस प्रकार विभावादि समग्र अंगों की योजना प्रीत्युत्पादक ढंग से वहाँ सम्भव है, वैसा शान्त रस को अंगी बनाकर नहीं । यहाँ उपाय का ही वर्णन सम्भव है, जैसा कि धनञ्जय ने 'दशरूपक' में कहा है। दूसरे शैली - विज्ञान कहता है कि अ-काव्यभाषा से काव्यभाषा के व्यावर्तक चार लक्षण हैं :
१. विचलन (Deviation) (विपथन भी)
२. सादृश्य (Analogy)
४. समान्तरता (Foregrounding)
३. चयन (Selected Word) (उपयुक्त शब्द) शैली विज्ञान का साक्ष्य
'मूकमाटी' की भाषा में 'घट' को जीवात्मा का प्रतीक बनाकर आद्यन्त एक कथा प्रस्तुति 'विचलन' का ही उदाहरण है। परम्परा में ऐसा कहीं नहीं मिलता, विशेषकर जैन मुनियों की प्रबन्ध काव्य परम्परा में । नई उपलब्धि के लिए पुराने को तोड़ना भी रचना की एक विशिष्ट उपलब्धि है । प्रकीर्णक रूप में भाषा पर विचार करते हुए आगे इस या इन बिन्दुओं पर अधिक कहा जायगा ।
सादृश्यमूलक अलंकारों का स्वत:स्फूर्त विनियोग
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प्राचीन शब्दावली में यह 'समुचितललितसन्निवेशचारु' काव्यभाषा से मण्डित होने के कारण इसे 'काव्य' कहने में मुझे कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती। जिस रोचक और रमणीय भाषा में अनुभव की अभिव्यक्ति यहाँ है, है वैसी भाषा में किसी शास्त्र की संरचना ? कहीं कहीं तो ऐसे 'अपृथग्यत्ननिर्वत्य' अलंकारों का प्रवाह उफन पड़ा है कि 'कादम्बरी' की महाश्वेता के विलाप की भाषा याद आ जाती है। इस सन्दर्भ में अन्तिम खण्ड का वह प्रसंग देखा जा सकता है, जिसमें "घर की ओर जा रहा सेठ' ' (पृ. ३५० से ३५२ तक) की दशा का विवरण देने के लिए अप्रस्तुतों की माला उफन पड़ी है। तीसरे खण्ड के संवाद को पढ़ें तो उसके पीछे निहित भाव-प्रवाह का आवेग भावमग्न कर देता है। दृश्यकाव्य की अपेक्षा महाकाव्य की संरचना शिथिल होती है। उसमें प्रसंगवश समागत सन्दर्भ अनपेक्षित विस्तार पा जाते हैं । अनुपात में स्वल्प शब्द क्रीड़ा या संख्या क्रीड़ा से समग्र प्रबन्ध अधम कोटि का या प्रहेलिकाप्राय हो जायगा ? मुझे ऐसा नहीं लगता । 'लगना' है भी आत्मनिष्ठ प्रतिक्रिया । सबका 'लगना' अलग-अलग होता है। हाँ, 'लगना' से 'होना' अवश्य भिन्न है ।
काव्यरूप का विचार - महाकाव्य
कवित्व या काव्य की प्रकृति की दृष्टि से देख लेने के बाद सम्प्रति 'महाकाव्य' के निकष पर इसकी परीक्षा की