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________________ xxxii :: मूकमाटी-मीमांसा 'नर्मदा का नरम कंकर' से साक्ष्य महाराजश्री के काव्य संकलन 'नर्मदा का नरम कंकर' के 'नरम कंकर' की स्थिति देखें । वह क्यों कुछ कहने की प्रेरणा देता है ? 'प्रकाशकीय' में बाबूलाल पाटोदी की सम्भावना से मैं सहमत हूँ। वह भी यही उत्तर देते हैं : “ऐसा मुनि-कवि जिसकी राहें काँटों की हैं, कंकरीली हैं, पाषाणी हैं, जिसे अहर्निश भीतर-बाहर चलना-ही-चलना है, रचना कर रहा हो”– वह और किसे प्रतीक बनाएगा ? वह कहता है : "युगों-युगों से/जीवन विनाशक सामग्री से/संघर्ष करता हुआ अपने में निहित/विकास की पूर्ण क्षमता सँजोये/अनन्त गुणों का संरक्षण करता हुआ/आया हूँ/किन्तु आज तक/अशुद्धता का विकास/ह्रास शुद्धता का विकास/प्रकाश/केवल अनुमान का/विषय रहा विश्वास विचार साकार कहाँ हुए ?/बस ! अब निवेदन है/कि/या तो इस कंकर को फोड़-फोड़ कर/पल भर में/कण-कण कर/शून्य में/उछाल... समाप्त कर दो/अन्यथा/इसे/सुन्दर सुडौल/शंकर का रूप प्रदान कर अविलम्ब/इसमें/अनन्त गुणों की/प्राण प्रतिष्ठा/कर दो हृदय में अपूर्व निष्ठा लिए/यह किन्नर/अकिंचन किंकर नर्मदा का नरम कंकर/चरणों में/उपस्थित हुआ है हे विश्व व्याधि के प्रलयंकर/तीर्थकर !/शंकर !" रचनाकार साधक है। साधना काल में उस पर बीत रही है, वह बाधाओं से गुज़र रहा है, परीषहों और उपसर्गों से संघर्ष कर रहा है, पर वह हताश नहीं है । कारण, उसे सम्भावनाओं पर विश्वास है, अपने प्रस्थान के प्रति गहरी निष्ठा है, विश्वव्याधि के प्रलयंकर, शंकर तीर्थंकर के चरणों में उपस्थित है । तड़प दिखाई पड़ रही है, जो कहता है : "पाऊँ कहाँ हरि हाय तुम्हें, धरती में धसौं कि अकासहिं चीरौं।" वह बीच में लटकना नहीं चाहता। कंकर जैसा प्रतीक साधक या तो घनघोर तपस्या के आँधी-तूफान में इसे नि:शेष ही कर देगा या इसे सुन्दर, सुडौल बनाकर दम लेगा । अध्यात्म के पथिकों में प्रज्वलित यही तड़प, अभीप्सा और बेचैनी उसका सात्त्विक पाथेय है। स्पष्ट ही उक्त रचना में साधक तपस्वी अपने को अनन्त सम्भावनाओं से संवलित कंकरपत्थर' ही मानता है। साधना बेला में अटूट विश्वास के साथ प्रस्थित मुनि की प्रातिभ चेतना में - स्वभाव में - ऐसे ही प्रतीक उभरेंगे। जिसका उत्तर स्वभाव में निहित हो, उसका उत्तर 'विभाव' में क्यों ढूँढ़ा जाय? इसलिए वार्तालाप के प्रसंग में डॉ. माचवे द्वारा उठाया गया सवाल कि आचार्यश्री ने 'माटी' का प्रतीक क्यों लिया, यहाँ समाहित हो जाता है। इस रचना के आलोक में इस सवाल का भी समाधान निहित है कि प्रस्तुत आलोच्य कृति मुक्त छन्द में क्यों लिखी गई ? इस उपर्युक्त उद्धृत रचना में जिस आवेग का विस्फोट है वह 'मुक्त छन्द' में ही व्यक्त हो सकता है, इसमें जिस स्नायविक तनाव से उन्मुक्ति का एहसास होता है, वह मुक्त छन्द में ही व्यक्त हो सकता है। जब आवेग नया है तो वह अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता भी नया ही बनाएगा । लयबद्धता होनी चाहिए, छन्द के क्रमागत ढाँचे अपर्याप्त पड़ जायँ तो पड़ना ही चाहिए।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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