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________________ पातनिकी आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (क) प्रस्तुत कृति पर आमन्त्रित समीक्षाएँ और उनकी समीक्षा T आलोच्य संकलन में अनेकविध समीक्षाएँ हैं । लेखक या समीक्षक कश्मीर से केरल और गुजरात से गुवाहाटी तक के हैं, इसीलिए ये समीक्षाएँ अपने में विविधता लिए हुई हैं। विविधता आकारगत भी है और आन्तरिक कथ्य या विवेच्यगत भी । कतिपय समीक्षाएँ बृहदाकार हैं और कतिपय सम्मत्यात्मक पत्र क़िस्म की । एकाध समीक्षक तो ऐसे भी हैं जिन्होंने कई (चार) अध्याय की पुस्तक ही लिख दी है और एक विद्वान् से भूमिका भी लिखवा ली है । सोचा इसी में छप जायगी । सम्पादन के क्रम में ऐसे प्रयासों को अन्यथा आकार देकर उसे पृथक् कृति होने के भ्रम से बचा लिया गया है। ऐसे विद्वानों के भी निबन्ध हैं जिन्होंने स्वतन्त्र पुस्तक छपवा ली है पर उसी पुस्तक से कुछ लेकर ग्रन्थोपयोगी स्वतन्त्र आकार दे दिया है । अधिकांश लेखों में आलोच्य कृति की कथावस्तु का सारांश प्रस्तुत कर अपनी प्रतिक्रिया कतिपय मुद्दों पर दे है। कुछ समीक्षाएँ श्रद्धातिरेक से आपादमस्तक-सिक्त हैं तो कतिपय ऐसी भी हैं जिनमें अधिक श्रम दोषोद्घाटनपरक ही हुआ है, यह अवश्य है कि ऐसी समीक्षाएँ कम हैं। परिचयोल्लेखपूर्वक गम्भीर प्रतिक्रिया प्रस्तुत करने वाले निबन्धों की संख्या उपस्थापकों की प्रातिभक्षमता के अनुरूप अनुपात में अधिक है। एकाध स्तवपरक पद्यबद्ध प्रशस्ति भी है। संकलन के आरम्भ में दिवंगत भूतपूर्व सम्पादक डॉ. प्रभाकर माचवे की वार्ता है आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से, जिसमें प्रेरणास्रोत से लेकर प्रक्रिया और कथ्य के अनेक मुद्दों पर विमर्श है । अपने अन्तरंग में एकाध निबन्ध महाराजश्री का भावप्रवण जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है तो वैसे ही एकाध उनका कर्तृत्व भी निरूपित करता है । संकलन की समग्रता के ख़्याल से ये समस्त प्रयास महत्त्व के हैं। चाहता था कि उपस्थापक आलोच्य ग्रन्थ की कथावस्तु का अनपेक्षित विवरण और आवर्तन न करके उसको बुद्धिगत ही रखें और जमकर उसके विभिन्न पक्षों, मुद्दों और बिन्दुओं पर अपनी वैचारिक प्रतिक्रिया अधिक दें, ताकि पाठक की ग्रन्थ विषयक समझ विकसित हो । बृहदाकार निबन्धों में कई एक अपना ज़्यादा झुकाव उसके सैद्धान्तिक और दार्शनिक पक्षों पर और कई एक काव्योचित पक्ष पर दिखाते हैं । कुछ महिला लेखिकाओं के निबन्ध अवश्य ऐसे मिले हैं जो केवल नारी महिमा पर ग्रन्थकार की दृष्टि का पल्लवन प्रस्तुत करते हैं। कितने निबन्ध ऐसे भी हैं जो भाषा-शैली और छन्दोविधान के विवेचन पर ही अपने को केन्द्रित करते हैं। ऐसे प्रयास अधिकांश निबन्धों में कथावस्तु की आवृत्ति को देखते हुए अधिक संगत लगते हैं। भारत की विभिन्न भाषाओं में निबद्ध महाकाव्यों की तुलना में आलोच्यग्रन्थ का वैशिष्ट्य निर्दिष्ट करने वाले लेखों की संख्या कम है - यद्यपि भूतपूर्व सम्पादक डॉ. माचवे का यह संकल्प था। समीक्षा संकलन के लोभ में कुछ लेख बहुत ही सामान्य और भरती के आ गए हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब बड़ी लेखनी अपने स्वरूप की रक्षा नहीं करती और प्रत्याशित से अनुरूप प्रतिक्रिया नहीं मिलती । प्रसन्नता की बात है कि इधर कुछ ऐसे प्रयास अवश्य हुए हैं जिससे और भी गम्भीर लेखनी सक्रिय हों और समीक्षक कुछ अनछुए पहलुओं पर गम्भीरतापूर्वक प्रकाश डाल सकें। प्रयास ही है, सफलता तो सम्मानास्पद समीक्षकों की अनुरूप निष्ठा पर निर्भर करती है। आचार्यश्री की प्रातिभक्षमता की जिस दमखम के साथ एकाध सज्जन ने त्रुटियाँ दिखाई हैं, उसी दमख़म के साथ औरों ने उनकी उपलब्धियाँ भी बताईं हैं। मुझे इसमें कोई अनौचित्य नहीं लगता कि समीक्षक जो भी कहे वह वस्तुनिष्ठ पद्धति पर साधार कहे । अतः ऐसे निष्ठावान् समीक्षक की मैं प्रशंसा करता हूँ परन्तु केवल
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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