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मूकमाटी-मीमांसा :: 189
और/असत्-विषयों में डूबी/आ-पाद-कण्ठ
सत् को असत् मानने वाली दृष्टि/स्वयं कलियुग है, बेटा!" (पृ. ८३) अहिंसक शिल्पी घट-निर्माण के लिए कूप से जल लेता है किन्तु जल के जीव पीड़ित न हों, इसका उसे ध्यान निरन्तर है । इसीलिए वे कहते हैं- “धम्मो दया-विसुद्धो” (पृ. ७०)।
द्वितीय खण्ड का शीर्षक स्वयं अपने निहित भाव को अभिव्यक्ति देता है कि केवल ज्ञान ही उपलब्धि नहीं देता अपितु उसमें रमना, डूबकर, जिज्ञासा को जीवित रखकर आगे बढ़ना होगा। मनसा-वाचा-कर्मणा से ही सही गति मिल सकती है। जीवन को नियम-संयम से बाँधने पर बाह्य उपकरणों की उपयोगिता कम होगी। शिल्पी ठिठुरती हुई रात में मात्र एक सूती चादर को पर्याप्त मानता है । कम्बल का नया अर्थ लेकर कम बल वालों के लिए उसकी उपयोगिता बताता है। शिल्पी के पास तो उसकी आत्मा का बल है। अध्यात्म यात्रा में प्रतिशोध आदि भावनाओं के दुष्परिणाम बताते हुए वे रावण और बाली का उदाहरण देते हैं। आत्म-विकास के लिए कामदेव के पुष्पबाण के स्थान पर शंकर का शूल ग्राह्य मानते हैं, क्योंकि एक में भोग है और दूसरे में योग । कुम्भकार वही उपदेश देता है, जो वह स्वयं आचरित करता है। उसका कथन है : “खम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हैं सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे" (पृ. १०५)। इस खण्ड में कवि ने नव रसों की मीमांसा अपने ढंग से करते हुए करुण और शान्त को अधिक श्रेयस्कर माना है"करुणा-रस जीवन का प्राण है" (पृ. १५९), उसके उपरान्त ही “सब रसों का अन्त होना-/शान्त-रस है" (पृ. १६०) । मिट्टी सैंधी, गूंधी जाकर, चाक पर चढ़ाई जाकर आकार पाती है। शिल्पी माटी को भी बताता है कि काल को भी चक्र कहते हैं, जिसके कारण चार गति, चौरासी लाख योनियों में जीव को चक्कर लगाना पड़ता है। वह चक्र रागद्वेषमय है किन्तु चक्री का चक्र भौतिक जीवन के अवसान का कारण होता है । उस माध्यम से आध्यात्मिक विकास का चित्रण कर वे 'धृति' का महत्त्व निरूपित करते हैं :
"मान-घमण्ड से अछूती माटी/पिण्ड से पिण्ड छुड़ाती हुई कुम्भ के रूप में ढलती है/कुम्भाकार धरती है
धृति के साथ धरती के ऊपर उठ रही है।" (पृ. १६४) तृतीय खण्ड की कथात्मकता द्वितीय खण्ड का ही अग्रिम चरण है । पुण्य का पथ ग्रहण करने से पाप स्वयं पृथक् होकर छूटने लगते हैं :
“पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है ।" (पृ. १८९) सन्तों का सही पथ तो धरती का पथ है जो केवल देती है, पाने की आकांक्षा उसको नहीं। वह सर्व-सहा है। इस कारण ही वह प्रतिकार नहीं करती । पुण्य कर्म करने वाला, स्वार्थ-संग्रह आदि का परित्याग करने वाला ही श्रमण की शरण तक पहुँचकर, प्रवचन-प्राप्ति का अधिकारी होता है । कवि अपने बुद्धिकौशल से नारी, अबला, महिला, दुहिता, सुता आदि के अनूठे अर्थों में विवेचना करते हैं। इन सबका कोई न कोई आध्यात्मिक भाव है। सार रूप में उनका संकेत है कि निरन्तर साधना से ज्ञान-ग्रन्थि खुलती है और यही साधना हमको भेद से अभेद की ओर, वेद से अवेद की ओर ले जाती है। फिर भी साधक को आपने दिशा-निर्देश देते हुए बताया है : “अपने ही बाहुओं से तैर कर/तीर मिलता नहीं बिना तैरे” (पृ. २६७)।
काव्य ग्रन्थ का चतुर्थ एवं अन्तिम खण्ड है- “अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख।" कुम्भ हो या जीव, उसको