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: मूकमाटी-मीमांसा
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लेती है। सत्ता तभी सत्ता है जब वह सही-सही चल सके ।
प्र. मा. - सारी शक्तियों की यही स्थिति है। पहले जो तानाशाही होती थी - चाहे वह हिटलर की हो, स्टालिन की हो या सद्दाम की हो.....
आ. वि. - संयम तो बरतना चाहिए ।
प्र. मा. प्राचीन ऋषियों ने जो 'द-द-द' कहा था- वह ठीक ही था दान, दया और दमन । दमन करना संयम ही
है और संयम धारण करना आज बहुत आवश्यक है ।
अच्छा, यह बताइए कि आज की पीढ़ी में, आज की शिक्षा में जो कुछ हो रहा है - जैसे आपका ग्रन्थ पढ़ा और भी महाकाव्य पढ़े, बहुत सारी पुस्तकें पढ़ीं - तो क्या इस पढ़ाई से संयम की शिक्षा प्राप्त होगी, संयम की भावना पैदा होगी और बढ़ेगी ? क्योंकि आज की पढ़ाई को देखकर और पढ़ने वालों में आचरण की गिरती स्थिति को देखकर हितचिन्तक मनीषी बेचैन हैं। उन्हें संयम की दीवाल ढहती-सी दिखाई दे रही है । मैं आप सबके मुनि समाज और अन्य संघों में गया, सभाएँ भी सुनीं। पर सर्वत्र इसकी कमी लक्षित हो रही है। लोगों में संयम का अभाव बढ़ रहा है। रामकृष्ण आश्रम भी गया । पर नए लोग इसकी ओर नहीं आ रहे हैं । कारण, यह मार्ग कठिन है। इस मार्ग को सहसा कोई नहीं अपनाता । तो क्या कोई सरल उपाय किया जा सकता है जिससे सर्वसाधारण में संयम की शिक्षा अधिक से अधिक दी जा सके ? जैसे स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा और अन्य लोगों ने भी कहा कि यह कठिन मार्ग है, इसका सरलीकरण कैसे हो ?
आ. वि. - ऐसा है कि दो मार्ग निर्दिष्ट हैं अपने यहाँ । एक रुपया है (जो पूर्ण है-उसमें सौ पाई यानी पैसे हैं) और दूसरी
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एक पाई है । पाई की यात्रा या मात्रा (संख्या) एक पाई से आरम्भ होकर निन्यानवे पाई तक चलती है। इन सबको हम पाई ही गिनते हैं । इसमें आप कहीं भी फिट हो सकते हैं। इसकी तुलना में जो रुपया है- उसमें सौ पाई चाहिए ही चाहिए। तो यदि सौ नहीं हो सकते कम से कम पाई को तो हम सुरक्षित रखें - जो हो सके वह तो करें (पूर्ण न हो सकें तो क्या अंश बनना ही छोड़ दें ? ) । एक पाई में दूसरी पाई जोड़ी जा सकती है। इस तरह एक से दो, दो से तीन तो हो सकते हैं। इस क्रम से धीरे-धीरे बढ़ें तो आपकी यात्रा उस एक पूर्ण की ओर होनी ही चाहिए, बढ़नी ही चाहिए।
प्र. मा. - इसका अभिप्राय यह कि संख्या या मात्रात्मक परिवर्तन से हम गुणात्मक परिवर्तन की ओर बढ़ें ?
आ. वि. जी हाँ ! गुणात्मक परिवर्तन की ओर धीरे-धीरे बढ़ें।
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प्र. मा. - कार्ल मार्क्स का यह कहना है : “क्वान्टिटी चेन्जेज़ क्वालिटी" - संख्या से गुणात्मक परिवर्तन होता है। हो जाता है। कहना यह है कि गुणात्मक परिवर्तन होना चाहिए ।
दो
आ. वि. - गुणात्मक परिवर्तन - जैसे, दो और दो मिलकर चार हो जाते हैं और दो में एक मिला दो, फिर एक मिला - इस तरह दो बार धन करने से भी चार हो जाते हैं । कहने का आशय यह है जो गुणित न कर सकें, वह धन कर के यानी जोड़कर करें पर ऋण तो न कर दें ( मतलब घटाएँ न, बढाते ही जाँय । वह गुणन की पद्धति से न हो सके तो धन के क्रम से ही हो जाय ) ।
प्र. मा.- जी हाँ, यह बहुत अच्छी बात कही आपने । आज तो ऋण की ही सम्भावनाएँ ज्यादा हैं । अन्तरराष्ट्रीय विश्व बैंक का ऋण भी तो उसी का प्रतीक है, जहाँ से ऋण लेते हैं हम ।
आ. वि. - आजऋण से ही हमारे सारे कार्य हो रहे हैं ।
प्र. मा.- जी हाँ ! अब मैं आपका ध्यान इस 'मूकमाटी' काव्य की ओर फिर आकृष्ट करना चाहता हूँ । आपने मुक्त