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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: lxiii अपने में लीन होना ही नियति है / निश्चय से यही यति है, और / 'पुरुष' यानी आत्मा परमात्मा है 'अर्थ' यानी प्राप्तव्य प्रयोजन है / आत्मा को छोड़कर सब पदार्थों को विस्मृत करना ही / सही पुरुषार्थ है ।" (पृ. ३४९) - यह आचार्यश्री की प्रौढोक्ति है । रेखांकित पंक्तियाँ उनकी दृष्टि से नियति और पुरुषार्थ का स्वरूप स्पष्ट करती हैं । इसे प्रकृत प्रस्थान के वैचारिक आलोक में सविस्तार देखना चाहिए । जैन दर्शन में नियति और पुरुषार्थ अमृतचन्द्र सूरि ने ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में अनादि बन्ध का वर्णन करते हुए कहा : "जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि " ॥१३॥ जीव द्वारा किए गए राग-द्वेष-मोह आदि परिणामों के निमित्त पाकर पुद्गल परमाणु स्वत: ही कर्म रूप से परिणत हो जाते हैं। आत्मा अपने चिदात्मक भावों से स्वयं परिणत होता है, पुद्गल कर्म तो उसमें निमित्त मात्र है। जीव और ' पुद्गल एक दूसरे के परिणमन में परस्पर निमित्त होते हैं। पूर्व कर्म से रागद्वेष और रागद्वेष से पुद्गल कर्मबन्ध की धारा बीज वृक्ष की सन्तति की तरह अनादिकाल से चल रही है । पूर्वकर्म के उदय से राग-द्वेष की वासना और राग-द्वेष की वासना से नूतन कर्मबन्ध का चक्र कैसे उच्छिन्न हो, यही मूल रोग है । वस्तुतः पूर्वकर्म के उदय से होनेवाला कर्मफलभूत राग-द्वेष-वासना आदि का भोगना कर्मबन्धक नहीं होता, किन्तु भोगकाल में जो नूतन राग-द्वेष रूप अध्यवसान भाव होते रहे हैं, वे बन्धक होते हैं । ऐसा होता है मिथ्यादृष्टि को न कि सम्यग्दृष्टि को। सम्यग्दृष्टि का भोग नई वासना पैदा नहीं करता । वह पूर्व कर्म को शान्त करता है और नूतन पैदा नहीं होने देता । मलतब सम्यग्दृष्टि का कर्मभोग निर्जरा ही नहीं, संवर का भी कारण बनता है । आत्मा का स्वरूप उपयोग है । आत्मा की चैतन्य शक्ति को 'उपयोग' कहते हैं । यह चितिशक्ति बाह्यआभ्यन्तर कारणों से यथासम्भव ज्ञानाकार पर्याय को और दर्शनाकार पर्याय को धारण करती है । जिस समय चैतन्य शक्ति ज्ञेय को जानती है उस समय साकार होकर 'ज्ञान' कहलाती है तथा जिस समय मात्र चैतन्याकार रहकर निराकार रहती है तब 'दर्शन' कहलाती है। दर्शन और ज्ञान, क्रम से होने वाली पर्यायें हैं । निरावरण दशा में चैतन्य अपने शुद्ध चैतन्य रूप में लीन रहता है । इस अनिर्वचनीय स्वरूपमात्र प्रतिष्ठित आत्ममात्र दशा को ही 'निर्वाण' कहते हैं । निर्वाण अर्थात् वासनाओं का निर्वाण । आत्मदृष्टि ही बन्ध का उच्छेद करती है। बुद्ध को आत्मा से चिढ़ है । वह उस आत्मसम्बन्धी नित्य दृष्टि को ही सर्व अनर्थमूल मानते हैं । वास्तव में सर्व अनर्थमूल आत्मस्वरूप का अन्यथावबोध है । धर्म, अधर्म, आकाश और असंख्य कालाणु का सदृश परिणमन ही होता है पर रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श वाले पुद्गल परमाणुओं का शुद्ध परिणमन तो होता ही है, स्कन्धात्मक अशुद्ध परिणमन भी होता है । स्थूल शरीर और कर्ममय सूक्ष्म शरीर से बद्ध जीव का विभावात्मक या विकारी परिणमन होता है, पर स्वरूप बोध हो जाने पर शरीरों के उच्छिन्न होने से शुद्ध चिन्मात्र रह जाता है। फिर उसे अन्यत्र अहंकार या ममकार नहीं होता । धर्मकीर्ति का यह वक्तव्य
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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