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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 511 =अधीनता, स्वातन्त्र्य आत्माधीनता-आत्मानुशासन । सत्-असत् के बीच विवेक का जागरूक रहना ही आत्मानुशासन है। ब्रह्मचर्य का एक तो प्रचलित पुराना अर्थ सर्वविदित है, पर उसके अर्थ में एक नयापन भी है और वह है परोन्मुखीवृत्ति या चित्तप्रवाह को स्व की ओर मोड़ना । भोग के रोग से निवृत्ति ही ब्रह्मचर्य है । निजात्मरमण ही अहिंसा है-दूसरों को पीड़ा न देना भी अहिंसा है पर यह अधूरी अहिंसा है। वास्तविक अहिंसा तब आती है जब आत्मा से राग-द्वेष का परिणाम समाप्त हो जाय । द्रव्य अहिंसा से बड़ी है-भाव अहिंसा । इसी से स्व-पर का कल्याण सम्भव है। आत्मलीनता ही ध्यान है- ध्यान एक ऐसी चित्त की एकाग्रवृत्ति है जो सभी में सम्भव है, पर अधिकांश में वह संसार की ओर रहती है, उसी पर मन टिका रहता है। उसे परावृत्त करना है, आत्मा की ओर मोड़ देना है तभी धर्मध्यान और शुक्लध्यान होगा और यही ध्यान मोक्ष का हेतु है । आर्तध्यान-रौद्रध्यान संसार के हेतु हैं । मूर्त से अमूर्त : आत्मा की दो दशाएँ हैं- स्वभावस्थ और विभावस्थ या वैभाविक । प्रथम अवस्था में वह स्वभावत: अमूर्त है, पर दूसरी अवस्था में वह मूर्त है । यदि वैभाविक आत्मा को वीतराग मिल जाय तो वह अपने अमूर्त स्वभाव में आ जायगा । मूर्त दशा से अमूर्त दशा में आ जायगा। आत्मानुभूति ही समयसार : समयसार में समय का अर्थ है-'सम्यक अयन'-गमन करने वाला। गति का अर्थ जानना भी होता है । इस प्रकार समय अर्थात् जो समीचीन रूप से अपने शुद्ध गुण-पर्यायों की अनुभूति करता है। उसका सार है-समयसार अर्थात् शुद्धात्मा । इस प्रकार समयसार आत्मानुभूति का ही तत्त्वत: दूसरा नाम है । मात्र जानना समयसार नहीं है। परिग्रह : मात्र बाह्य वस्तुओं का ग्रहण परिग्रह नहीं है । वस्तुतः मूर्छा ही परिग्रह है, उन वस्तुओं के प्रति लगाव ही परिग्रह है, आसक्ति ही परिग्रह है । आसक्ति ही आत्मा को बाँधती है । अचौर्य : चौर्य-भाव के त्याग का संकल्प लेने से 'पर' के ग्रहण का भाव चला जायगा । जब दृष्टि में वीतरागता आ जायगी, तब राग में भी वीतरागता दृष्टिगोचर होने लगेगी। जब चेतना से चौर्य भाव गया, तब सर्वत्र अचौर्य दृष्टिगोचर होने लगेगा । इसीलिए कहा जाता है कि घृणा चोर से नहीं, चौर्य भाव से करना चाहिए। प्रवचन पारिजात (१९७८) इस उपखण्ड में नैनागिरि, छतरपुर, मध्यप्रदेश में हुए सात वक्तव्य संकलित हैं। वे हैं - जीव-अजीव तत्त्व, आस्रव तत्त्व, बन्ध तत्त्व, संवर तत्त्व, निर्जरा तत्त्व, मोक्ष तत्त्व, अनेकान्त । जैन धारा में कुल सात तत्त्व हैं : जीव-अजीव : जीव तत्त्व को प्राथमिकता इसलिए प्राप्त है कि उसमें संवेदन क्षमता है । भुक्ति और मुक्ति दोनों संवेदनगोचर हैं। जीव ही प्रत्येक तत्त्व का भोक्ता है। अजीव में संवेदनक्षमता नहीं है। वैभाविक स्थिति से स्वाभाविक स्थिति में आने पर उसे ही मुक्तता का संवेदन होने लगता है । अनादिकाल से कर्म, नोकर्म और भावकर्म रूप अजीव का जीव के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है । इस सम्बन्ध के आत्यन्तिक निरास से ही मुक्तता संवेदनगोचर हो सकती है। अनादिकाल से प्राप्त काषाय से पुद्गल (कार्मण वर्गणारूप) में कर्मात्मक परिणति, कर्म से शरीर, शरीर से इन्द्रियादि की रचना और फिर उनसे विषयों के ग्रहण की परम्परा चलती रहती है, जिससे बन्ध होता है । आत्मा के स्वभाव का अन्यथा भवन या विभावन होने लगता है । मोक्षमार्ग में आरूढ़ होने पर जीव विभाव से स्वभाव में आकर मुक्तता का अनुभव करता है। आसव : सव का अर्थ है-बहना, आस्रव का इसका विपरीतार्थ है-सब ओर से आना। कर्मों का आस्रव आत्मा की ही 'योग' नामक वैभाविक स्थिति से होता है । आचार्यों ने पारिणामिक भावों में प्रख्यात तीन (जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) के अतिरिक्त इसे भी माना है। इसके न मानने से आत्मा का स्वातन्त्र्य प्रतिहत होता है । इस आस्रव के पाँच द्वार हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इन पाँच में मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी को भी रख रखा है। अशुभ लेश्या को शुभ्रतम बनाने से अनन्तानुबन्धी भी चली जाती है । फलत: सारे आस्रव रुक जायेंगे। बन्ध तत्त्व : कर्म प्रदेशों का आत्मप्रदेशों से एक क्षेत्रावगाह हो जाना ही बन्ध है । राग-द्वेष रूप कषाय की आर्द्रता से
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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