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________________ ८. ९. मूकमाटी-मीमांसा : : 503 के उस कालुष्य और कौटिल्य को लक्षित नहीं कर पा रहा है जो उत्तमांग पर काले बालों के व्याज से छाए हुए हैं। मनमाना मन : इसमें रचयिता जानता है कि मन ही बन्ध और मोक्ष- दोनों में उपयोगी है । बन्ध में उपयोगी होने की तो उसकी पुरानी आदत है पर उसमें प्रयासपूर्वक विवेक जाग्रत किया जा सकता है और अनुकूल बनाकर साधा जा सकता है, तभी विभाव से स्वभाव की ओर बढ़ा जा सकता है । शेष रहा चर्चन : इसमें रचयिता कहता है कि मलयाचल के नागिन व्याप्त चन्दन के स्पर्श से मण्डित गन्धवह स्वयं भगवत् चरणों का स्पर्श कर अपने ऊपर मँडराते अलिदल को भी चरणस्पर्श की प्रेरणा देता है । चरणस्पर्श करते ही नखदर्पण में काले आत्मप्रतिबिम्ब को देखकर उन्हें ग्लानि होती है और उनका कायाकल्प हो जाता है । गुनगुनाते हुए मानों कहते जाते हैं-भ्रामरी वृत्ति अपनाओ । पर खेद है विषयानुरागीजन उन्हीं चरणों में नत रहकर भी आत्मगत कालुष्य का क्षालन नहीं कर पाते। प्रभो ! उन्हें सद्बुद्धि दो ताकि वे मोह मान का वमन कर सकें । १०. मानसदर्पण में : कवयिता अपनी चिन्ता उन तथाकथित श्रद्धालुओं के सम्बन्ध में व्यक्त करता है जो ! सहित प्रभु के चरणों में नत तो होते हैं पर अपना मानसदर्पण स्वच्छ नहीं कर पाते । पुत्र- कलत्र ११. बिन्दु में क्या...? : निष्ठावान् उपासक की अदम्य अभीप्सा है कि वह अपने व्यक्तित्व के बिन्दु को महासत्ता के सिन्धु में विलीन कर दे । पर बिन्दु में यह भाव जगे तो सही - स्थिर बना तो रहे । १२. नर्मदा का नरम कंकर : रचयिता की व्यग्रता - गर्भ प्रार्थना है तीर्थंकरों से कि वह या तो इस नर्मदा के कंकर को फोड़-फोडकर आसमान में उछाल दे या फिर इसमें अन्तर्हित शंकर के स्वरूप को गढ़-गढ़कर उभार दे । १३. पूर्ण होती पाँखुड़ी : अकस्मात् वन्दनीय चरणों में समर्पित होने की भावना तो अप्रमाण परिमाण में जगी, पर न तो हाथ जुड़े, न वन्दन के स्वर निकले । विपरीत इसके विषय दाहदग्ध चिर तृषित चेतना अपरूप पर जाकर टिक गई, ठीक उस तरह जैसे ग्रीष्मताप तप्त धरती वर्षा का जल बिना श्वास लिए पीती है । १४. प्रभु मेरे में - मैं मौन : शिष्य ने प्रभु के दर्शन किए, लगा प्रकाशपुंज प्रभुलोचन प्रतिच्छवि में तैर रहे हैं । तन्मयता ने गौण-प्रधान-भाव को ध्वस्त कर दिया, तभी यह भावना उठी कि यह चिर बुझा दीप उस प्रकाशपुंज आलोकमय का आलोक ग्रहण कर आलोकमय हो जाय । पर पता नहीं वह कौन दुर्धर्ष व्यवधान था जो वह सब न होने दिया । शरण की याचना उमड़ उठी 1 १५. समर्पण द्वार पर : दिगम्बरी दीक्षा के अनन्तर प्रकाशपुंज गुरुवर्य से कन्नड़भाषी शिष्य पारदर्शी स्वच्छ भाषा में 'समयसार' के ज्ञान जल से ऐसा आप्यायित हुआ कि लगा जैसे वह सब भेदों को पार कर प्रकाशपुंज बन गया है। १६. जीवित समयसार : 'समयसार' के उच्च शृंग से ज्ञानगंगा का निर्जरा पर्यवसायी झर-झर प्रवाह उपासक क ओर चला आ रहा है । उसकी चेतना उसमें निष्णात है, पर मंज़िल से हटकर जिसकी दृष्टि पद्धति (कर्मकाण्ड) पर ही टिक गई है - उसे क्या कहा जाय ? १७. शरणचरण : उपासक की चेतना कुमुदिनी को सदल प्रफुल्लित करने वाले उपास्य के मुखमण्डल से शरच्चन्द्र का पूर्ण चन्द्र लज्जित होकर उसके चरणों पर नखमण्डल के रूप में शरण ग्रहण कर रहा है। १८. दर्पण में एक और दर्पण : उपास्य निमित्त बनकर उपासक रूप उपादान में अन्तर्हित सम्पूर्ण सम्भावना को उपलब्धि में परिणत कर देता / सकता है । पर उपादान में भी पात्रता होनी चाहिए। गुलाब का रंग स्फटिक में ही प्रतिबिम्बित होता है, निरा पाषाण में नहीं । १९. वंशीधर को : विवश होकर मन ने श्रुत का सहारा लेकर गन्तव्य तक पहुँचने का प्रयास किया है। फलत: वह
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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