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464 :: मूकमाटी-मीमांसा
__ "राही बनना ही तो/हीरा बनना है,/स्वयं राही शब्द ही
विलोम-रूप से कह रहा है-/रा"ही"ही"रा।" (पृ. ५७) 'मूकमाटी' की एक-एक पंक्ति पर, एक-एक पृष्ठ पर काव्य लिखे जा सकते हैं, और स्वयं आचार्यश्री के जीवन पर महाकाव्य लिखे जा सकते हैं। उनका कविता का संसार सागर के समान गहरा, हिमालय के समान ऊँचा है। उसमें सम्पूर्ण जैन दर्शन को आगम सम्मत दृष्टिकोण से, नीरस विषय को भी सरस बनाकर काव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। उनकी काव्य प्रतिभा का परिचय शब्दों में बाँधा जाना नितान्त मुश्किल है।
जात-पाँत और रूढ़िवाद की श्रृंखलाओं से मुक्त विश्व बन्धुत्व की भावना से ओत-प्रोत यह काव्य साम्प्रदायिकता से परे है। इसमें राजनीति, धर्म शास्त्र, समाज शास्त्र और अर्थ शास्त्र आदि का विश्लेषण अच्छे ढंग से किया है । इसी प्रकार नारी उत्थान का भरसक प्रयास किया गया है और मन्त्र, विज्ञान, ज्योतिष आदि पर भी प्रकाश डाला है । गुरुवर के कण्ठ में साक्षात् सरस्वती का वास है । आपकी प्रवचन सभा में व्यक्ति बिना डोर के खिंचे चले आते हैं।
अतः स्पष्ट है कि 'मूकमाटी' महाकाव्य एक ऐसी अमूल्य धरोहर है, जिसे समझने के लिए हमें एड़ी-चोटी एक करना होगी। भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने से हमें इस कृति पर नाज़ है।
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