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मूकमाटी-मीमांसा :: xlix
भाव और विचार के सक्षम संवाहक संवाद
संवादों में कहीं भावोद्गार हैं, कहीं वैचारिक अभिव्यक्ति है और कहीं घटना - सूत्र का संकेत । सरिता तट की माटी का आरम्भिक उद्गार कितनी करुणा लिए हुए है? कितनी दयनीयता है उसमें कि माता का हृदय पसीज जाता है। और वह उसी स्तर से उद्बोधन देती है। माटी मुँह नहीं खोलती, हृदय खोलती है, इसीलिए उसका मर्मभेदी प्रभाव पड़ता है । यह बहिरात्मा का नहीं, अन्तरात्मा का उद्गार है। किसी भी स्थिति का जितनी ही गहराई से एहसास होता है। कविता उतनी ही प्रभावकारी और बलवती होती है। माटी को वैभाविक बन्धजन्य वेदना का जिस गहराई से एहसास है, उसके वर्ण-वर्ण और उनसे घटित पद तथा वाक्य बोलते हैं । प्रायः कहा जाता है कि भाव की व्यंजक सामग्री का नियोजन होना चाहिए, न कि उसके वाचक शब्द का । इससे तो 'स्वशब्द- वाच्यत्व' दोष आ जाता है - देखें :
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“ यातनायें पीड़ायें ये ! / कितनी तरह की वेदनायें / कितनी और आगे कब तक'‘“पता नहीं/ इनका छोर है या नहीं !” (पृ. ४)
परन्तु जब वेदना अन्त - इयत्ताहीन हो तब अनुभविता बहुत लम्बा व्यंजक वक्तव्य नहीं दे सकता, अन्यथा कालिदास का कण्व शकुन्तला की भावी विदाई का गहराई से एहसास करता हुए अभिव्यक्ति के शिखर पर 'वैक्लव्यं मम तावदीदृशमिदं स्नेहादरण्यौकसः' कहकर मौन का पथ न पकड़ता । पण्डितराज जगन्नाथ ने 'शोक' का लक्षण देते हुए कहा है- “पुत्रादिवियोगमरणादिजन्मा वैक्लव्याख्याश्चित्तवृत्तिविशेष: शोकः " - अर्थात् वैक्लव्य नामक चित्तवृत्ति ही शोक है । इष्ट के नाश, इष्ट की अप्राप्ति और अनिष्ट की प्राप्ति से करुण का आविर्भाव होता है, व्यंजना होती है । पण्डितराज कहते हैं कि पुत्र प्रभृति इष्टजनों के वियोग अथवा मरण आदि से उत्पन्न होने वाली व्याकुलता ही शोक है। माटी भी इष्ट प्राप्ति तथा अनिष्ट की प्राप्ति से विकलता का गहराई से अनुभव करती है, अत: उसे शोकसंविग्न कहा जा रहा है । उसमें शोक ही नहीं है, निर्वेद भी है। निर्वेद 'नित्यानित्यवस्तुविचारजन्मा' विषय- वैराग्य का ही दूसरा नाम है । उसकी वेदना की तह में वैराग्य भी मुखर है । निष्कर्ष यह कि जब वक्ता का अन्तस् भावों की निरवधि परम्परा से भर उठता है तब कालिदास की तरह उसी भाव को स्वशब्द वाच्य करके ही राहत पाता है, कहाँ तक उसका व्यंजन करें ? माटी व्यवहार के प्रति सुप्त है और आत्मा के विषय में जागरूक है । श्रीमद् देवनन्दी - पूज्यपाद स्वामी ने 'समाधितन्त्र' में ठीक ही कहा है :
" व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागर्त्यात्मगोचरे ।
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे” ॥७८॥
इस प्रकार विभिन्न मानस भावों की संवादों द्वारा सशक्त व्यंजना की गई है। सन्त के संसर्ग में आकर आतंकवादी हृदय तक बदल जाता है और कहता है :
" समग्र संसार ही / दु:ख से भरपूर है, / यहाँ सुख है, पर वैषयिक और वह भी क्षणिक !” (पृ. ४८५)
इसमें भी नित्यानित्यविवेकजन्मा वैराग्य का भाव मुखर है। संवादों में भावजगत् भी लहराता है और विवेक तथा तत्प्रसूत मान्यताएँ तो मुखर हुई ही हैं । सन्त सद्गुरु अपनी प्रकृति और सम्बोध्य मुमुक्षु को दृष्टिगत कर निर्णीत मान्यता व्यक्त करते हैं :