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मूकमाटी-मीमांसा :: 457 की'- यानी वह निरीह माटी भी चन्दन-सम मूल्यवान् हो जाती है।
आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' में श्रम एवं धर्म की सार्थकता तथा उसके फल की भी अभिव्यक्ति की है, कुम्भकार के घर पर मोतियों की वर्षा के माध्यम से । राजा उसके लालच में पड़कर उसे बोरों में भरवाकर ले जाना चाहता है। तभी आकाशवाणी होती है कि यह पाप कार्य होगा । अन्य के धन का संग्रह करना पाप है, चोरी है। दूसरे के द्वारा अर्जित धन का हरण करना पाप है । यह मोतियों की वर्षा तो कुम्भकार के द्वारा किए गए श्रम की फलश्रुति है, अत: इसे क्यों लेते हो ? किन्तु कुम्भकार तो अपरिग्रहवृत्ति का धारक था, अतएव सम्पूर्ण मुक्ता राशि राजा को समर्पित कर देता है।
'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने आस्था और विश्वास के प्रति हमें विश्वास दिलाया है कि अनुभूति मिलेगी, विश्वास को धैर्यतापूर्वक धारण करने पर । किन्तु विश्वास को अनुभूति मिलेगी, मार्ग में नहीं, मंज़िल पर । इसी भाँति इस महाकाव्य के लक्ष्य के अनुरूप ही हमें मिट्टी के समान ही अपने अन्दर भी आस्था एवं मिट्टी के जैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्ति हेतु धैर्यता धारण करनी होगी। मैं 'मूकमाटी' को महाकाव्य इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि जो कविता महान् होती है वही महाकाव्य है, ऐसी ही वर्तमान में महाकाव्य की नई परिभाषा मानी जाती है । जो कविता महान् होती है वह अवश्य ही मनुष्य को कल्याणकारी मार्ग पर ले जाती है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी कहा है- "कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई।" ऐसे हित-कल्याणकारी भावों से मण्डित कविता ही लोकहित सम्पादन करनेवाली होती है । माटी को धरातल से उठाकर जीवन के उच्चशिखर तक ले जाने वाली कविता को महाकाव्य ही कहा जाएगा।
इसे गेयरूप में छन्द का रूप देना हो तो 'स्वच्छन्द छन्द' से ही अभिमण्डित किया जा सकता है। शैली की दृष्टि से 'मूकमाटी' में 'याद' को 'दया' आदि वर्ण-विलोम की पद्धति अपनाई गई है। इसे मैं कविक्रीड़ा के अन्तर्गत मानता हूँ। यह शब्द या वाणी विलास है, जैसा कि अनुप्रास या श्लेष आदि अलंकारों में भी हुआ करता है । इतना अवश्य है कि 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने जो प्रयोग किए हैं वे एक यौगिक क्रिया के समान हैं जिसमें शब्द जिस अर्थ को तलाश रहा है वह जब सीधा खड़ा होकर शीर्षासन करने लगता है तो उस अर्थ को पा जाता है । इस योग-क्रिया में आचार्यश्री सिद्धहस्त हैं जिससे फलित है कि उनका शब्दों पर इतना अधिकार है कि वे शब्द, पद अथवा चरण उनके आज्ञाकारी के समान हो गए हैं जो सीधे अथवा शीर्षासन करके भी शब्द एवं अर्थ को सामने उपस्थित कर देते हैं।
एक ही शब्द के अन्दर कई अर्थ गुम्फित होते हैं। उन्हें ही कवि अपनी कुशलता से कंजूसीपूर्वक प्रयोगकर अनेक अर्थों में प्रयोग कर लेते हैं। 'सेनापति' कवि ने एक ही प्रयोग में कंजूस और दाता के दो अर्थ भर दिए है । देखिए'थोड़े माँगे बहु देन कहें, माँगन को देख पट बार-बार खोलत हैं। इसमें भिखारी को माँगते देख कंजूसी अर्थ में जहाँ देने को इनकार करते हुए घर के कपाट बन्द कर लेने का संकेत है तो वहीं दाता अर्थ में थोड़े माँगने पर बहुत देने एवं बारबार दरवाजे खोलकर देने के लिए उद्यत होने का भी अर्थ भरा हुआ है । अत: ऐसे प्रयोग कवियों की शब्दशक्ति, वाक्शक्ति के प्रयोग हैं जो कि वाणी विलास हैं। 'मूकमाटी' को विहंगम दृष्टि से ही देखने पर इसमें जहाँ वाणी विलास प्राप्त है वहीं शब्द एवं वाक्शक्ति, जो कवियों के लिए हथियार के समान है, ऐसी अभिधा का चमत्कार तो कहीं लक्षणा की छटा, व्यंजना की मोहकता और अलंकारों एवं अनुप्रासों का चमत्कार तो पदे-पदे देखने को मिल जाता है । अन्त में 'सियाराम शरण' की इन पंक्तियों से समाप्त करता हूँ :
"तेरे पुण्य सलिल से प्रभु है, मेरी गागर भरी-भरी। कम क्या, कम क्या, कम क्या इतनी क्षुधा-पिपासा हरी-हरी॥"