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________________ 446 :: मूकमाटी-मीमांसा पथ-प्रदर्शक कुम्भ के माध्यम से कवि साक्षात् काव्य बन कर बोल उठता है : "युगों से वंश-परम्परा से/वंशीधर के अधरों का/प्यार-पीयूष मिला जिसे वह बाँस-पंक्ति/मांसल बाँह-वाली/मंगल-कारक, अमंगल-वारक तोरण-द्वार का अनुकरण करती/कुम्भ के पदों में प्रणिपात करती है स्वयं को धन्य-तमा मानती है।/और/दृग-बिन्दुओं के मिष हंस-परमहंसों-सी भूरि-शुभ्रा/वंश-मुक्ता की वर्षा करती है।” (पृ. ४२४) दुःख और आत्मा के सम्बन्ध में कवि अपना आध्यात्मिक चिन्तन अभिव्यक्त करते हुए कह उठता है : "दुःख आत्मा का स्वभाव - धर्म नहीं हो सकता, मोह-कर्म से प्रभावित आत्मा का/विभाव-परिणमन मात्र है वह । नैमित्तिक परिणाम कथंचित् पराये हैं।” (पृ. ३०५) 'मूकमाटी' के माध्यम से हमारे आध्यात्मिक देश का 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का सन्देश भी ध्वनित होता है । हमारी मान्यता है कि मनुष्य का धर्म एक है, मनुष्य की संस्कृति एक है और मनुष्य का ईश्वर एक है । हमारी धर्म धारणा विश्व बन्धुत्व, प्रेम, करुणा और विश्व शान्ति पर आधारित है, जिसे समग्र दृष्टि से देखने पर 'मूकमाटी' में स्पष्ट देखा जा सकता है। हमारी धारणा है कि जब मनुष्य की प्रार्थना में महावीर का णमो लोए सव्व साहूणं, बुद्ध का 'धम्म सरणं' समाहित हो जाए, तब धर्म का उदय होता है; जब शंकराचार्य की अद्वैत-चेतना, वात्स्यायन की उन्मुक्तता मन के तार झंकृत करे, तब धर्म का उदय होता है; जब क्षमा और करुणा के मसीहा ईसा, शान्ति और विश्व भाईचारे एवं समानता के स्वप्नद्रष्टा मुहम्मद मनुष्य के मन पर दस्तक दें, तब धर्म का उदय होता है; जब लाओत्से, जरथुस्थ और ताओ मानव मन में आनन्द की सुगन्ध भर दें, तब धर्म का उदय होता है । अविभाज्य हैं ये सारे युग पुरुष और इनका सन्देश । __ महाकाव्य के मानदण्ड और प्रचलित मान्य परिभाषा के बारे में कुछ कहने का स्वयं को अधिकारी नहीं पाता। काव्य सृजन में भी आचार्यश्री का प्रवचनकार कवि से कहीं अधिक मुखर हो उठा है। मुझे आचार्यश्री का प्रवचन सुनने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन मेरी धारणा है कि उनके प्रवचन भी काव्य का-सा आनन्द देते होंगे। शब्दों के पर्याय, शब्दों के सन्धि-विच्छेद रूप आदि काव्यात्मक अर्थ देकर उनका कवि रूप तो प्रकट करते ही हैं, मनुष्य के मन पर सीधे दस्तक भी देते हैं, धर्म का उदय करते हैं। ___ आप स्वयं को भक्त माने, कुम्भकार माने अथवा घट - इस धर्म जल को कितना भर पाते हैं, यह आपकी क्षमता, पात्रता पर निर्भर है। कहीं आप छोटी-सी लुटिया में तो इसे नहीं भरना चाहते ? धर्म का यह उदय-जल घटघाटों को भुलाकर नीर की एकता पर ध्यान केन्द्रित करने पर ही उपलब्ध होगा। 'मूकमाटी' में आचार्य श्री विद्यासागर ने अध्यात्म के दर्शन को पसारा दिया है । विविध रूपकों, शब्दार्थों के माध्यम से अपने क्रान्तद्रष्टा कवि-धर्म का निर्वहन किया है । प्रणम्य है उनका यह काव्य चिन्तन ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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