SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xlvii पाँच अवस्थाएँ हैं । बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य - ये पाँच अर्थ प्रकृतियाँ हैं । अवस्था और अर्थ प्रकृतियों का संचार करने से पूर्व पहले यह देखना आवश्यक है कि कथावस्तु के ये जोड़ सन्तुलित हैं या नहीं ? वैसे इस सन्दर्भ में यह बात पहले कही जा चुकी है कि कथावस्तु का जितना चुस्त-दुरुस्त विधान दृश्यकाव्य में होता है उतना श्रव्य के भेद महाकाव्य में नहीं होता । उसकी कथावस्तु की योजना अपेक्षाकृत शिथिल होती है । अत: आलोच्य कृति में भी सन्धि योजना शिथिल है | कथावस्तु में उसके विकास की सन्तुलित अवस्थाएँ होनी चाहिए। होता यह है कि कथावस्तु तो घटनाओं और व्यापारों की शृंखला है, जो नायक द्वारा सम्पाद्य होती है । इन व्यापारों का एक लक्ष्य होता है, वह चतुर्वर्ग में से अन्यतम या एकाधिक होता है । प्रस्तुत कृति में स्पष्ट ही 'स्व-भाव' में स्थिति या मोक्षलाभ जैसा चौथा पुरुषार्थ ही परम प्रयोजन है । 'माटी' ग्रन्थारम्भ में ही संकल्प लेती है और माँ धरती से प्रार्थना करती है : और अन्त में : " इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की afa ha होगी ? /बता दो, माँ · इसे !” (पृ. ५) " सृजनशील जीवन का / वर्गातीत अपवर्ग हुआ ।” (पृ. ४८३ ) संकल्प उसकी पार्यन्तिक परिणति के मध्य सारा व्यापार चलता है । इस व्यापार में 'आरम्भ' अवस्था आती है। यहाँ मात्र सुक्य होता है । औत्सुक्य है - कालाक्षमत्व । प्रयोजन की प्राप्ति के प्रति त्वरा का भाव । 'काया की च्युति कब होगी', I द्वारा ही कालिक व्यवधान की असहिष्णुता व्यक्त होती है। 'दशरूपक'कार कहता है : “औत्सुक्यमात्रमारम्भः फललाभाय भूयसे || ” (१ /२०) तदनन्तर फलाभाव नायक को अतित्वरापूर्वक व्यापारशील, प्रयत्नशील बना देता है । 'माटी' का पर्याय घट शिल्पी की कृपा से सत्तासादन में जुट जाता है और तीसरे क्या चौथे खण्ड के आरम्भ तक उसे पूर्ण रूप से जलधारण रूप अर्हता की प्राप्ति के लायक बनने में चला जाता है। ऊपर से लगता है कि नायक अपने परिपक्व और परिणत रूप में चौथे खण्ड में आता है, जो समापन खण्ड है। मतलब प्रयत्नावस्था ही यहाँ तक आती है, पर अन्यापदेशी पद्धति पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि जीव द्वारा तप:साधना पूर्वक बनने की प्रक्रिया का शुभारम्भ पहले ही खण्ड से आरम्भ हो जाता है, प्रयत्न का विन्यास वहीं हो जाता है । दूसरे खण्ड से 'प्रयत्न' के साथ, उपाय के साथ अपायों का भी आना आरम्भ ह जाता है । अपाय का वेग उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। जल और अनल के हृदयवेधी आँधी-तूफान, जो उपसर्ग और परीषहों के प्रतीक हैं, अपनी काष्ठापन्न स्थिति में आते हैं और साधक का प्रतीक कुम्भ उसमें दृढ़तापूर्वक अटल है और परिणत तथा परिपक्व हो जाता है। लगता है कि अब गला - तब गला, किन्तु पुरुषार्थी को किसी न किसी का अवलम्ब मिल जाता है । अपायों की आँधी में बीज 'गर्भस्थ' हो - होकर 'विमर्श' करता हुआ संकल्पित के 'निर्वहण' के तट पर आ लगता है । उपाय और अपाय का यह लम्बा संघर्ष प्रायः अन्त तक चलता रहता है और 'विमर्श' तथा 'निर्वहण' के लिए आनुपातिक दृष्टि से जो आयाम मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता । इसे असन्तुलन कहें अथवा शान्त पर्यवसायी आध्यात्मिक यात्रा की गुरुता कहें, जहाँ उपेयदशा की अपेक्षा उपायों का ही वर्णन होता है। संवाद योजना यद्यपि ऊपर दिए गए महाकाव्य के पारम्परिक साँचे में स्पष्ट रूप से 'संवाद' जैसे घटक का उल्लेख नहीं है, तथापि यहाँ इस शीर्षक से विचार करने के पीछे दो कारण हैं - एक तो यह कि प्रस्तुत कृति संवाद - प्रचुर है और दूसरे यह
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy