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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 421 क्रोध पाप का मूल है, वह विवेक का नाश कर दुर्बुद्धि को जन्म देता है : “वराह-राह का राही राहु/हिताहित-विवेक-वंचित ।" (पृ. २३८) आज हमारी सर्वाधिक आवश्यकता आत्मशक्ति संचय की है । जब दवा, दया, दुआ सब परास्त हो जाएँ, तब आत्मशक्ति का ही आधार ले व्यक्ति जय प्राप्त करता है । इन्द्र का व्रज प्रहार, भीषण वर्षा, प्रलय का दृश्य, उपलवृष्टि आदि के पश्चात् सूर्योदय का प्रतीक ले कवि ने अनेक कष्टों के पश्चात् प्राप्त ईश सान्निध्य के सुखद पलों की, अज्ञान की घटाओं को विदार्ण कर उदित होते ज्ञान के प्रकाश की कल्पना की है। इन सबके बाद भी कुम्भ का निखरना भी हमें एक नवीन दृष्टि देता है कि अनेक विपदाओं के पश्चात् संघर्ष करते हुए जब व्यक्ति मुक्त होता है, परीक्षा में सफल होता है तब उसके हाथ जो एक नया स्वयम्भू व्यक्तित्व आता है, वह अद्वितीय होता है । व्यक्ति की यही जिजीविषा उसे संघर्षरत कर जीना सिखाती है। . ___ लकड़ी की व्यथा को भी कवि ने एक नया अर्थ दिया है। जब तक कोई एक अपने को समाप्त नहीं करेगा, दूसरा स्थापित कैसा होगा? लकड़ी जलेगी नहीं तो कुम्भ पकेगा कैसे ? लकड़ी का सम्बन्ध अग्नि के दाह से है, जिसके बिना व्यक्ति को अस्तित्व बोध हो नहीं सकता। स्वयं सीता माँ को भी अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ा फिर यह तो सामान्य व्यक्ति रूपी कुम्भ है, जिसे इस कठिन परीक्षा से निकलकर अपने व्यक्तित्व का परिचय कराना है। ___ बिना उद्यम के कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता । कुम्भ को ऊपर उठाने वाले हाथ महान् हैं और इसके लिए उद्यम करना होगा । कहा भी है : "उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥" कवि ने ध्यान की महत्ता पर भी विचार रखे हैं : "ध्यान की बात करना/और/ध्यान से बात करना इन दोनों में बहुत अन्तर है।" (पृ. २८६) 'मूकमाटी' के अन्तिम सोपान में कवि अनेक ऐसे वर्णन करता है जो उसे अत्यन्त उच्चादर्शी व्यक्तित्व प्रदान करता है । अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ ब्रह्मविचार या आत्मज्ञान से होता है । कवि ने इसे इस प्रकार वर्णित किया है : "अध्यात्म सदा सत्य चिद्रूप ही/भास्वत होता है। स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है।” (पृ. २८८) इसी प्रकार श्रमण की सुन्दर व्याख्या कवि ने की है। वास्तव में 'श्रमण' शब्द बौद्ध भिक्षु या जैन साधुओं के लिए रूढ़ हो गया है, किन्तु इसका शाब्दिक अर्थ 'श्रम करके संचरण करने वाला' है। कवि के शब्दों में देखिए - जो भिक्षा वृत्ति पर जीवित रहे, वह श्रमण है । अब भिक्षा वृत्ति जिसकी होगी, उसके लिए जिह्वा का स्वाद का प्रश्न नहीं रह जाएगा, क्योंकि जठराग्नि की शान्ति हेतु ही वह भोजन करेगा, इसे कवि ने साधु की 'गोचरी वृत्ति' कहा है। 'भ्रामरी वृत्ति की व्याख्या करते हुए कवि ने भ्रमर से साधु की तुलना की है जो व्यक्ति संसार से ज्ञान ले और पवित्र भाव से संसार को सौंप देता है, वह श्रमण होता है। ‘पात्र' शब्द का भी दो अर्थों में कवि ने प्रयोग किया है : "पात्र से पानी पीने वाला/उत्तम पात्र हो नहीं सकता पाणि-पात्र ही परमोत्तम माना है।” (पृ. ३३५)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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