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________________ 394 :: मूकमाटी-मीमांसा अचेतन । शिल्पी सृजनहार है । श्रद्धालु सेठ ईश आराधक, उपासक है । राजा और राज मण्डली धरती के जीवन्त और साक्षात् पात्र हैं। माटी, कलश, धरती, स्वर्ण एवं रजत पात्र आदि जड़ होकर भी वे सभी इसी जगत् के पात्र हैं। कुछ मौन तो कुछ मुखर होकर अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। आचार्य श्री विद्यासागर की वाणी से कथानक का सारा ताना-बाना मूर्त और अमूर्त प्रतीकों के समानान्तर चलता-चलता अन्तत: पारलौकिक हो जाता है । कथोपकथन, संवाद पात्रों के कार्य व्यापारों पर आधारित रहकर भी सम्प्रेष्णीय और मर्मभेदी हैं, जो धीरे-धीरे गम्भीर और अर्थयुक्त होकर पारलौकिक चिन्तन के क्षितिज की ओर ले जाते हैं। राष्ट्रीय चेतना : सजातीय, समवर्गीय और समान कुल के लोगों की कषाय वृत्ति-लोभ, मोह, क्रोध आदि के कारण मान-अपमान, ऊँच-नीच और छोटे-बड़े की भावना एक-दूसरे को आपस में अलग कर देती है। मनुष्य से घर, घर से परिवार, परिवार से मुहल्ला, फिर अड़ोस-पड़ोस, आस-पास, गाँव और फिर समूचा समाज विकारयुक्त होता चला जाता है । कालान्तर में यही भावना जब सारे देश में फैलती है तो राष्ट्रीय स्तर पर एक सर्वव्यापी अलगाव घर कर जाता है। धीरे-धीरे समाज में मानवीय जीवन मूल्यों की कमी होती है, नैतिक मूल्य चकनाचूर होकर धराशायी हो जाते हैं और राष्ट्रीयता चरमराने लगती है। आज के सन्दर्भ में आतंकवाद हमारे देश में इसी प्रकार से उत्पन्न एक राष्ट्रीय समस्या है। 'मूकमाटी' के कथानक में स्वर्ण कलश और मंगल घट का परस्पर वैर है । दो समान सजातीय कुल परस्पर वैर के कारण किन-किन परिस्थितियों में विपरीत हो जाते हैं, इसका सटीक, सतर्क और दो टूक उत्तर 'मूकमाटी' के कथानक से मिलता है। 'मूकमाटी' के आतंकवाद की परिस्थितियों और हमारे देश में जन्मे आतंकवाद की परिस्थितियों में कोई अन्तर नहीं है। राजनीति से वीतरागी आचार्य विद्यासागर को क्या सरोकार ! किन्तु राष्ट्रीयता के लिए चिन्तित रहने वाले आचार्य आदरणीय हैं समूचे देश की दृष्टि में । राष्ट्रीयता की इस भावना में वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय के बन्धनों से दूर हटकर मानवता के लिए समर्पित हैं। 'मूकमाटी' में उनकी आत्मा में राष्ट्रीय हित का भाव मुखर हो जाता है । हमारेआपके बीच भी एक आतंकवाद आखिर पनपता कैसे है, इसे देखें : - "अपने को उपहास का पात्र,/मूल्य-हीन, उपेक्षित देख बदले के भाव-भरा/भीतर से जलता-घुटता स्वर्ण-कलश ! ...यह बात निश्चित है कि/मान को टीस पहुंचने से ही, आतंकवाद का अवतार होता है ।/अति-पोषण या अतिशोषण का भी यही परिणाम होता है।" (पृ. ४१७-४१८) 0 “आज आयेगा आतंकवाद का दल,/आपत्ति की आँधी ले आधी रात में।"(पृ.४१९) ० "अड़ोस-पड़ोस की निरपराध जनता/इस चक्रवात के चक्कर में आकर, ___ कहीं फैंस न जाय।" (पृ. ४२२) ० "जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह।" (पृ. ४४१) आचार्यश्री आतंकवाद को केवल पंजाब में ही सीमित नहीं मानते हैं । वह तो जहाँ मनुष्य हैं, वहाँ कहीं भी उभर कर आ सकता है। उनकी मान्यता है कि आतंकवाद समाज में, हम-आप में सर्वव्यापी है । घर-परिवार में, मुहल्ला-पड़ोस में, आस-पास, गाँव, नगर, शहर, महानगर, द्वीप, महाद्वीप में हर तरफ बढ़ते राग-द्वेष, छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष और कलुषित चित्तवृत्ति मनुष्य को कहीं का नहीं रहने देती है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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