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________________ xlii :: मूकमाटी-मीमांसा “सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः । सद्वंश: क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः ॥ एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा । श्रृंगारवीरशान्तानामेकोऽङ्गी रस इष्यते ॥ अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः । ...क्वचिन्निन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्त्तनम् । ... सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः ।। प्रातर्मध्याह्नमृगयाशैलर्तुवनसागराः । सम्भोगविप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः ॥ रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः । वर्णनीया यथायोग्यं साङ्गोपाङ्गा अमी इह । ” इस उद्धरण से निर्गत आवश्यक-अनावश्यक घटकों का उल्लेख ऊपर कर दिया गया है। लक्षण लक्ष्य से निकाले जाते हैं, इसीलिए काव्यशास्त्र 'काव्यानुशासन' भी कहा जाता है । यह शासन या शास्त्र काव्यानुधावी होता है । शास्त्र 'शंसन', 'शासन' और 'अनुशासन'- तीनों के कारण भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में परिभाषित होता है । सम्प्रति आलोच्य कृति पर पारम्परिक साँचे के घटकों का संचार करना चाहिए । आलोच्य कृति की संक्षिप्त कथावस्तु पारम्परिक साँचे के अनुसार कथावस्तु में आधिकारिक कथा और प्रासंगिक कथाएँ होती हैं। प्रासंगिक कथा भी प्रकार की होती है पताका और प्रकरी । पहली दूर तक चलती है और दूसरी अल्पदेशव्यापी होती है । इसमें आधिकारिक कथा उस मूकमाटी की है जिसमें घट रूप में परिणत होने की सम्भावना है। अधिकार का अर्थ है-फलस्वाम्य- मुख्य फल । यह मुख्य फल जिसे प्राप्त हो, वह अधिकारी कहा जाता है और इससे सम्बद्ध कथा आधिकारिक है । यहाँ मुख्य फल है 'अपवर्ग, ' जिसे घट प्राप्त करता है। इस प्रयोजन की प्राप्ति नेतृत्व या प्रयास उसी का है, अत: उसे ही अधिकारी माना जाना चाहिए। इसकी कथा आद्यन्त चलती है। प्रत्येक खण्ड उसकी कथा प्रमुख है। यह बात अलग है कि अवान्तर प्रसंग प्रचुरता से आते हैं जिससे मूल कथा का प्रवाह बाधित होता है। कथा के प्रवाह में सहज ही प्रसंगान्तर का फूट पड़ना एक बात है और सिद्धान्तों तथा मान्यताओं के उपस्थापन के लोभ से प्रसंगान्तर बढ़ाते चलना दूसरी बात है । यहाँ दूसरी प्रवृत्ति अधिक लक्षित होती है। ग्रन्थ के चार खण्डों में कथावस्तु विभाजित है : [क] संकर नहीं : वर्ण-लाभ । [ख] शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं । [ग] पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन । [घ] अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख । काव्य जब अपनी समग्रता में रूपक, अन्योक्ति अथवा अन्यापदेश का बाना धारण करके आता है, तब अनेक प्रकार की समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। 'कामायनी' को भी इन समस्याओं से जूझना पड़ा है और उसका काव्यत्व व्याहत हुआ है। सबसे पहली समस्या यह आती अप्रस्तुत आख्यान की प्रस्तुत वृत्त पर आद्यन्त संगति कैसे बिठाई जाय कथावस्तु की परिकल्पना में रचयिता ने अपना प्रस्थान पृथक् कर लिया है, परन्तु मान्यताएँ कैसे पृथक् कर सकता है ?
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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