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मूकमाटी-मीमांसा :: 391 पताका- जो मूल कथा के साथ चलती है। श्रद्धालु सेठ की कथा पताका है। प्रकरी- मोती बटोरेने की कथा।
मूल कथा के तीन प्रकार माने जाते हैं : (१) प्रख्यात : इतिहास, पुराण या परम्परागत प्रसिद्ध कथा । 'मूकमाटी' की कथा ऐतिहासिक नहीं है। (२) उत्पाद्य : नाटककार की कल्पना से गढ़ी गई कथा । 'मूकमाटी' में मोती बटोरने की कथा कवि की कल्पना की
उपज है। (३) मिश्र : जिसमें प्रख्यात कथा और कल्पना द्वारा गढ़ी कथा का मिश्रण हो । महाकाव्य 'मूकमाटी' के कथानक में
ऐसी कोई प्रासंगिक कथा नहीं है।
_ 'मूकमाटी' में रस परिपाक कितना सार्थक और प्रभावपूर्ण है, इस बिन्दु पर विचार करना इस अंश का प्रतिपाद्य है । वीतरागी सन्त, जो दुनियाँ के राग-रंग से परे हैं किन्तु रस की सच्ची अनुभूति से दूर नहीं, 'मूकमाटी' में काव्य की भाषा में वे रसों को परिभाषित करते हुए उन्हें पाठकों के सामने साक्षात् खड़ा करते जाते हैं। फिर भी अवसरानुकूल वे रस की उपस्थिति छन्दों में व्यक्त करते हैं तो शृंगार (भक्ति/वात्सल्य या संयोग/विप्रलम्भ रूप दोनों पक्ष), वीर एवं शान्त रसों के परिपाक में भले कैसे चूक सकते हैं। शृंगार रस : शृंगार रस काम, रति, वासना के स्थायी भाव से जन्मता है। कवि के ही शब्दों में :
"तन मिलता है तन-धारी को/सरूप या कुरूप, सुरूप वाला रूप में और निखार/कुरूप वाला रूप में सुधार
लाने का प्रयास करता है/आभरण-आभूषणों शृंगारों से।" (पृ. १३९) आगे रस विवेचन देखिए :
"रस-रसायन की यह/ललक और चखन/पर-परायन की यह
परख और लखन/कब से चल रही है/यह उपासना वासना की ?" (पृ. १३९) शृंगार की एक और प्रस्तुति :
"कितनी तपन है यह !/बाहर और भीतर/ज्वालामुखी हवायें ये ! जल-सी गई मेरी/काया चाहती है/स्पर्श में बदलाहट,
घाम नहीं अब,/"धाम मिले !" (पृ. १४०) __ जहाँ तक रस परिपाक की बात है वह बराबर होता है, किन्तु दूसरे ही क्षण जब पाठक आगे बढ़ता है तो कवि की ओर से एक नई उद्बोधना मिलती है और शृंगार शरीरीन होकर मनस्वी होकर रह जाता है अर्थात् संयोग से विप्रलम्भ और फिर चिरन्तन वियोग की दशा :
"जिन आँखों में/काजल-काली/करुणाई वह/छलक आई है, ...जिन-अधरों में/प्रांजल लाली/अरुणाई वह/झलक आई है, ...जिन गालों में/मांसल वाली/तरुणाई वह/दुलक आई है, कुछ बता रही है-/समुचित बल का/बलिदान करो!" (पृ. १२८)