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362 :: मूकमाटी-मीमांसा
युग के प्रति सचेतन दृष्टि रखने वाला कवि ही युग-युग का कवि हो सकता है, यह उपर्युक्त प्रयोजन से सिद्ध है । परन्तु युग में उलझ जाना, उसके भुलावों में लक्ष्यच्युत हो जाना, भोगग्रस्त हो जाना ही यदि साधक का लक्ष्य हो जाए तो संस्कृति के उन सनातन तत्त्वों की उपेक्षा हो जाएगी जो उच्चतर जीवन मूल्यों की ओर निरन्तर अंगुलि निर्देश करते रहते हैं। 'मूकमाटी' में उन सनातन तत्त्वों को बहुविध स्पष्ट किया गया है।
उस मुखर सन्देश को रेखांकित करने से पूर्व एक बात और । जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर को न मानने वाले नास्तिक हैं और जैन दर्शन नास्तिक है, कवि की दृष्टि में वे अल्पज्ञ हैं। ‘मानस तरंग' में ही कवि का विचार है कि "...जैन-दर्शन नास्तिक दर्शनों को सही दिशाबोध देनेवाला एक आदर्श आस्तिक दर्शन है । यथार्थ में ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकारना ही उसे नकारना है, और यही नास्तिकता है, मिथ्या है। ...ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है।"
कवि ने ‘ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन' किया है । यह समझना तो अन्याय होगा कि जैन सिद्धान्तों के ही प्रचार-प्रसार के लिए 'मूकमाटी' की रचना हुई है। वस्तुत: व्यापक मानवीय दृष्टि और गम्भीर करुणा - संवेदना कहीं अधिक वांछित लक्ष्य हैं, जो 'मूकमाटी' के मूल में हैं।
माटी के सृजनशील जीवन की यात्रा मूल रूप में साधक की यात्रा है । माटी का मानवीकरण कवि की उस व्यापक दृष्टि का प्रमाण है जो चेतन-अचेतन के प्रति करुणा से ओतप्रोत है। प्रारम्भ में माटी धरती माँ की संकोचशीला, लाजवती, लावण्यवती' बेटी के रूप में दिखाई देती है जो अधम पापियों से पद-दलिता, सुख-मुक्ता और दुःख-युक्ता, तिरस्कृत, त्यक्ता' है । वह धरती माँ के सामने अपनी पीड़ा व्यक्त करती है। धरती का उद्बोधन सभी के लिए प्रेरक है :
"सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!/प्रति-सत्ता में होती हैं
अनगिन सम्भावनायें/उत्थान-पतन की।” (पृ. ७) धरती माँ माटी को हताशा छोड़कर साधना के साँचे में ढलने की प्रेरणा देती है, आस्था का मार्ग दिखलाती है। साधना का सन्देश माटी के माध्यम से उन मनुष्यों के लिए है जो शरीर से आगे नहीं देख पाते, उसे ही लक्ष्य समझते हैं और जो मानव जीवन में निहित अनन्त सम्भावनाओं से अपरिचित हैं । जीवन संघर्षों से निराश न होने, पुरुषार्थ के पथ पर अग्रसर होने का धरती माँ का सन्देश माटी के सोच को बदल देता है । कुम्भकार की सत्संगति माटी के सृजनशील जीवन का प्रथम सर्ग है । शिल्पी कुम्भकार माटी के कंकर निकालकर उसे मृदु, स्वच्छ बनाता है, दोषरहित करता है। कंकर दल की प्रार्थना सुनकर माटी का उद्बोधन साधना का मन्त्र है :
"संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही/विलोम रूप से कह रहा है -
रा"ही"ही"रा।" (पृ. ५६-५७) कुम्भकार के चरणों में अहंकार रहित समर्पण माटी के सृजनशील जीवन का दूसरा सर्ग है । यह मानों गुरु चरणों में साधक का समर्पण है। माटी और काँटे का संवाद बदले की भावना से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए बहुत उपयोगी और सार्थक है । माटी का कहना है :
"बदले का भाव वह अनल है/जो/जलाता है तन को भी, चेतन को भी भव-भव तक !" (पृ. ९८)