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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 359 जैन आगम ग्रन्थों में नारी के प्रति प्रायः नकारात्मक दृष्टि ही मिलती है। प्राचीन सामन्ती व्यवस्था में चूँकि नारी की देह मात्र को भोग दृष्टि से स्वीकार करने वाले समाज के लिए वही व्याख्या आवश्यक भी थी। 'नारी' को पुरुष का सबसे बड़ा शत्रु माना गया था । मुनिजी आधुनिक जीवन में नारी की महत्ता को समझाते हुए जैन धर्म को युग परिप्रेक्ष्य में गतिशील ते हैं । वे महिला को जीवन में महोत्सव लाने वाली तथा पुरुष को रास्ता दिखाने वाली मानते हैं । नारी स्वयं कहती है : “अनंग के संग से अंगारित होने वालो, / सुनो जरा सुनो तो " ! स्वीकार करती हूँ कि / मैं अंगना हूँ / परन्तु, / मात्र अंग ना हूँ" । " (पृ. २०७ ) प्रभाकर और बदली के वाद-विवाद में नारी का उदात्त पक्ष प्रस्तुत करने के बाद सात्त्विक जीवन के कणों की कुम्भकार अनुपस्थिति में प्रांगण में मुक्ता रूप में वर्षा हो गई । धरती की कीर्ति देखकर सागर को क्षोभ होता है । सागर के क्षोभ का प्रतिपक्षी बड़वाल, तीन घन बादलों की उमड़न, सागर द्वारा राहु का आह्वान, सूर्यग्रहण, इन्द्र द्वारा मेघों पर वज्र प्रहार, ओलों की वर्षा तथा प्रलय का दृश्य आदि का चित्रण इस खण्ड में अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से किया गया है । चतुर्थखण्ड का नाम है 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी - सी राख' । इसमें तैयार घट के पकने की प्रक्रिया का काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण है । यह खण्ड अपने विस्तार में स्वतन्त्र खण्ड काव्य की परिमिति ग्रहण करता है । इस सर्ग में लकड़ी की व्यथा का चित्रण करते हुए कवि जनतन्त्र की समस्या पर भी चुभता व्यंग्य करता है : “प्रायः अपराधी - जन बच जाते / निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें / पीटते-पीटते टूटतीं हम । / इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है / या / मनमाना 'तन्त्र' है !” (पृ. २७१) न्यायव्यवस्था और सबल तथा निर्बल के सम्बन्धों का भी यथार्थ चित्रण इसी प्रसंग में किया गया है। आशातीत विलम्ब के कारण न्याय ही, अन्याय-सा प्रतीत होने लगता है । अग्नि परीक्षा के वाद-विवाद में कवि धर्म को परिभाषित करता है । सहज प्राप्त शक्ति का सदुपयोग करना ही धर्म है। दूसरे के दोषों को जलाना पाप नहीं है। ध्यान के सन्दर्भ आधुनिक मानव के द्वारा चयनित जीवन की दो दिशाओं तथा उनकी परिणतियों की ओर संकेत करते हुए कवि कहता है कि जो मानव मद्यपान, भोग विलास को चुनता है वह शव बन जाता है और जो त्याग का रास्ता चुनता है वह शिव बन जाता है । इसी क्रम में दर्शन का भी दर्शन प्रस्तुत किया गया है। जैन दर्शन को जीवन के सन्दर्भ में नए ढंग से प्रस्तुत करने की काव्यात्मक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप वह पाठक या श्रोता के हृदय में उतरता चला जाता है । अवा में पककर कुम्भ तैयार हो जाता है । उसे बजाते ही उसमें जो राग फूटता है, वह जीवन का अर्थ खोल देता है। सेवक उसे धन न देकर धन्यवाद देकर प्राप्त कर लेता है। यहाँ कवि धन के अनावश्यक संग्रह की भर्त्सना करता है। इसमें साधु के आहार दान का भी विस्तृत वर्णन है। स्वर्ण कलश को ईर्ष्याजनित उद्विग्नता है कि मिट्टी के कलश को इतना सम्मान दिया गया और उसकी उपेक्षा की गई। स्वर्ण कलश आतंकवादी दल आहूत कर देता है जो परिवार में त्राहि-त्राहि मचा देता है। अर्थ का लोभ ही बेकार नवयुवकों को आतंकवाद की ओर प्रेरित करता है । इस राष्ट्रीय समस्या की छाया भी मुनि मन में गहरे बसी हुई है, इसीलिए वह प्रसंगानुसार शब्दबद्ध हो जाती है। सेठ अपने परिवार की रक्षा मनुष्येतर शक्तियों से करता है। क्षमादान द्वारा आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन हो जाता है । कवि ने यहीं पर विवाह की समस्या को उठाया है :
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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