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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 351 मानवीय स्वभाव अहं के परित्याग का नहीं है । वह प्रत्येक स्थिति में इसे सम्पोषित कर रखना ही चाहता है। यही वजह है कि जब इस अहं को कभी भी जाने-अनजाने चोट पहुँचती है तो फिर इससे जो चिनगारी उत्पन्न होती है उसका स्वरूप प्रतिशोधात्मक हुआ करता है। प्रतिशोध निरन्तर अशान्ति को बढ़ाकर जीवन के अमन-चैन को समाप्त कर देता है । हमें चाहिए कि हम इसे (अहं को) त्याग दें, नहीं तो शुभ/सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं : "मान को टीस पहुँचने से ही,/आतंकवाद का अवतार होता है । अति-पोषण या अति-शोषण का भी/यही परिणाम होता है, तब/जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं,/बदले का भाव प्रतिशोध ! जो कि/महा-अज्ञानता है, दूरदर्शिता का अभाव पर के लिए नहीं,/अपने लिए भी घातक !" (पृ. ४१८) सम-सामयिक समय कृतज्ञता की अपेक्षा कृतघ्नता का ज्यादा है। स्वार्थ में व्यक्ति इतना लिप्त हो गया है कि व्यक्ति का ध्येय केवल कार्यसिद्धि पर ही टिका रहता है । इसीलिए कार्यसिद्धि के उपरान्त सिद्धि के साधन के प्रति कृतज्ञता को ज्ञापित करना व्यक्ति उचित ही नहीं समझता । जबकि यही उसका सबसे बड़ा दुर्गुण है जो उसे जीवन में पग-पग पर अनेक कठिनाइयों का सामना करने के लिए बाध्य करता है । यह प्रवृत्ति पाश्चात्य देशों में प्रायः कम ही देखने को मिलती है। यही वजह है कि वहाँ पर 'बैंक्स' (Thanks) का प्रचलन सर्वाधिक है । इस छोटे से शब्द में भावना की जो निष्ठा विद्यमान है वह निःसन्देह प्रबल है और जो किसी भी कार्यसिद्धि की पूरक बन सकती है : "गुणों में गुण कृतज्ञता है,/...जिस सज्जन को यह मिलती है वह अगाध जल में भी/अबाध पथ पा जाता है।" (पृ. ४५४) इस नश्वर संसार में प्राणीमात्र को नश्वरता का एहसास होना नितान्त आवश्यक है। तभी मोह का त्याग सम्भव है, अन्यथा नहीं। मोह का प्राबल्य इतना अधिक होता है कि प्राणियों की जागृति/होश भी हवा में गुम हो जाता है। होश का गुम हो जाना व्यक्ति के पतन की निशानी है। इससे व्यक्ति प्रायः अनभिज्ञ ही रहना चाहता है। परन्तु इस अनभिज्ञता का परिणाम अशुभ है, अतएव समय से पूर्व ही चेत जाना आवश्यक है : "रस्सी को सर्प समझ कर/विषयों से हीन होता है तो कभी सर्प को रस्सी समझ कर/विषयों में लीन होता है। यह सब मोह की महिमा है/इस महिमा का अन्त/तब तक हो नहीं सकता स्वभाव की अनभिज्ञता/जीवित रहेगी जब तक।" (पृ. ४६२) कवि सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी होता है। वह संसार के प्रत्येक प्राणी की मंगल कामना करता है । इस कामना में परिवार, समाज और देश सभी का हित छिपा रहता है । वह (कवि) हिंसा के स्थान पर अहिंसा, पाप के स्थान पर पुण्य/प्रशस्तता, विषाद के स्थान पर हर्ष और दु:ख के स्थान पर सुख की कामना सदैव ही करता है । यही भाव उसके 'उदार हृदय' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की प्रवृत्ति की ओर इंगित करते हैं : "यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव ।” (पृ. ४७८)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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