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________________ xxxvi :: मूकमाटी-मीमांसा स्वानुभूति का प्रकाशन यों ही अच्छा लगता है – लोक मंगल हो, इस कारण और अच्छा लगता है। वह सम्प्रेषण के विषय में 'मूकमाटी' में कहते हैं : "विचारों के ऐक्य से/आचारों के साम्य से/सम्प्रेषण में/निखार आता है, वरना/विकार आता है !/बिना बिखराव/उपयोग की धारा का दृढ़-तटों से संयत,/सरकन-शीला सरिता-सी/लक्ष्य की ओर बढ़ना ही सम्प्रेषण का सही स्वरूप है/हाँ ! हाँ !! इस विषय में विशेष बात यह है कि सम्प्रेष्य के प्रति/कभी भूलकर भी/अधिकार का भाव आना सम्प्रेषण का दुरुपयोग है,/वह फलीभूत भी नहीं होता!/और, सहकार का भाव आना/सदुपयोग है, सार्थक है। सम्प्रेषण वह खाद है/जिससे, कि/सद्भावों की पौध पुष्ट-सम्पुष्ट होती है।” (पृ. २२-२३) इन पंक्तियों के आलोक में लगता है कि महाराजश्री का सम्प्रेषण की ओर झुकाव है । लोकमंगलकामी में यह होना ही चाहिए । शास्त्रकाव्य में सम्प्रेषण की भावना बलवती होती ही है । परन्तु सम्प्रेषण का जो स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में व्यक्त है, वह स्तरीय है। उसमें निखार के लिए विचारों का समन्वय और आचारगत साम्य चाहिए । लक्ष्य की ओर एकतानता ही उसका सही स्वरूप है । यह वह खाद है जिससे सद्भावों की पौध पुष्ट-सम्पुष्ट होती है। साथ ही यह कि सम्प्रेष्य पर हावी होने से सम्प्रेषण का स्वरूप बिगड़ता है, फलत:उसे भोग रूप में सहकारी ही होना चाहिए। 'मूकमाटी'- काव्यत्व और काव्यरूप ___उपर्युक्त विवेचन के आलोक में स्पष्ट है कि प्रस्तुत रचना लोक-मंगल की भावना से लिखी गई है। इसमें उन मूल्यों का संवादों द्वारा उपस्थापन है जो मानव को 'विभाव' से 'स्व-भाव साक्षात्कार की दिशा में ले जाते हैं। महाराजश्री ने इन मूल्यों को जिया है । अत: उन्हें सम्प्रेषण ही नहीं, स्वानुभूति का रस भी 'स्वान्तः सुखाय' परिचालित करता है। इस पद्धति से सम्प्रेषण के बीज उनकी पूर्ववर्ती रचनाओं में लक्षित होते हैं। उसी का यह प्रबन्ध की धरा पर सहज विकास है । इसमें आत्माभिव्यक्ति भी है और सम्प्रेषण भी, स्वानुभूति का उल्लास भी परिचालक है और लोक-मंगल की कामना भी। महाकाव्यों में मूल्यगान की परम्परा ऊपर यह मान्यता रखी गई है कि प्रस्तुत रचना शुद्ध कविता नहीं, शास्त्रकाव्य है । सहृदय आचार्यों की धारणा है कि वस्तुत: काव्य संवेदना का समुच्छलन है। आदिकाव्य रामायण की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए आनन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्तपादाचार्य ने काव्य को सर्जनात्मक अनुभूति का ही रूपान्तरण माना है, शास्त्रीय मान्यताओं का रोचक उपस्थापन मात्र नहीं; गो कि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य की रचना के उपयुक्त नायक की तलाश में नारद के सामने जो मानदण्ड रखे थे, वे मानव मूल्यों के ही थे। उन मूल्यों से मण्डित नायक के जीवन के कलात्मक उद्रेखण के व्याज से महर्षि उन मूल्यों का ही गान करना चाहता है। महाभारत के भी आदि, अन्त और मध्य में भगवान् वासुदेव ही विद्यमान महाकाव्य की दो धाराएँ जैसा कि ऊपर कहा गया है, समस्या काव्यसामग्री के संयोजन में दिए गए बलाबल का है । कोई रसात्मक प्रभाव को केन्द्र में रख कर उसके अनुरूप समुचित सामग्री का संयोजन करेगा जबकि दूसरा मूल्यों के रोचक ढंग से
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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