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मूकमाटी-मीमांसा :: 333
नज़र नहीं आएगा। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है :
"जब किसी से कोई गिला रखना
अपने सामने आईना रखना।" आज विश्व की सबसे ज्वलन्त समस्या आतंकवाद है । आचार्यश्री की दृष्टि में इसका कारण अति-पोषण या अति-शोषण है। इसमें प्रतिशोध की भावना जन्मती है, जो दूसरों के लिए ही नहीं बल्कि स्वयं के लिए भी घातक बनती है। इस विषय में 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने स्पष्टत: लिखा है, द्रष्टव्य है पृ. ४१८।।
इस विषय में पाओलो फ्रेरे का विचार है : "हिंसा का आरम्भ वे करते हैं, जो उत्पीड़न करते हैं, शोषण करते हैं जो दूसरों को मनुष्य नहीं मानते । इसका आरम्भ वे नहीं करते जो उत्पीड़ित हैं, शोषित हैं, जिन्हें मनुष्य नहीं माना जाता । मनमुटाव वे नहीं फैलाते हैं जो प्रेम से वंचित हैं बल्कि वे फैलाते हैं जो प्रेम नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं से ही प्रेम करते हैं । असहाय और आतंकित लोग आतंक शुरू नहीं करते । आतंक की शुरूआत वे करते हैं जो हिंसक होते हैं और अपनी शक्ति के सहारे जिंदगी से खारिज लोगों को पैदा करने वाली ठोस स्थिति उत्पन्न करते हैं। निरंकुशता का स्रोत वे नहीं होते जो अत्याचारों के शिकार होते हैं, उसके स्रोत होते हैं-निरंकुश अत्याचारी। घृणा तिरस्कृत लोग नहीं, तिरस्कार करने वाले फैलाते हैं। मनुष्य का निषेध वे नहीं करते जो मनुष्यता से वंचित कर दिए गए हैं, बल्कि वे करते हैं जिन्होंने उनकी (और साथ ही अपनी भी) मनुष्यता का निषेध किया है । बल प्रयोग वे नहीं करते जो बलशालियों की प्रबलता के अधीन निर्बल बना दिए गए हैं अपितु उन्हें निर्बल बनाने वाले बलशाली करते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज व्यक्ति को सामाजिक बनने, लोभ छोड़ने तथा धन के समुचित वितरण की पक्षधरता दिखाते हैं । जब बहुत अधिक धन एक जगह एकत्रित हो जाता है तब समाज में निर्धनता, विषमता, असन्तोष, चौर्यभाव एवं अधार्मिकता सिर उठाने लगते हैं। वास्तव में चोरों को जन्म देने वाला परिग्रही समाज ही होता है। आचार्यश्री पूरी तरह सामाजिक अवधारणा को जीते/जानते हुए धर्म और धर्मात्मा के सही भाव को सामने रखते हैं। वे विषमता रहित समाज की पुरजोर हिमायत करते हैं। 'मूकमाटी' में आतंक का यह कथन समाज की मानसिकता एवं सर्वोदय की भावना को ही प्रकट करता है, इस हेतु पृ. ४६७-४६८ अवलोकनीय हैं।
आचार्यश्री का विचार है कि सब सन्तों का, धर्मात्मा पुरुषों का उद्देश्य यही होता है कि जगत् के सभी जीव सुख-शान्ति का अनुभव करें। एक साथ सभी जीवों के प्रति अभय देने की भावना हर धर्मात्मा के अन्दर होती है, होनी भी चाहिए। इस बात का प्रयास सभी को करना चाहिए। जितनी सामग्री आवश्यक है उतनी ही रखें, उससे अधिक न रखें। इस प्रकार परिमाण कर लेने से आप अपव्यय से बचेंगे, साथ ही सामग्री का वितरण सभी के लिए सही ढंग से होगा। सभी का जीवन सुखद होगा। देश में मानवता कायम रहेगी, देश की संस्कृति की रक्षा होगी एवं आत्मकल्याण होगा। जैन धर्म में तो परस्परोपग्रहो जीवानाम्' की बातें आती हैं। अत: साम्प्रदायिकता के नाम पर अपने-अपने घर भरना, अपना स्वार्थसिद्ध करना और अहं को पुष्ट करना ठीक नहीं है। आज अहंवृत्ति नहीं, सेवावृत्ति को फैलाना चाहिए। जीवन भले ही चार दिन का क्यों न हो, लेकिन अहिंसामय हो तो मूल्यवान् है । जो जैन धर्म के साथ क्षण भर भी जीता है, वह धन्य है। जो प्यासे की प्यास नहीं बुझाता, आचार्यश्री की दृष्टि में वह पापी है :
"पापी वह/प्यासे प्राणी को/पानी पिलाता भी कब?" (पृ. २९८) न्याय में विलम्ब होने के कारण दलितों में असन्तोष फैलता है । यदि समय पर न्याय मिले तो समाज में पतनोन्मुख प्रवृत्तियों तथा बलपूर्वक दलित बनाए जाने की प्रक्रिया को रोका जा सकता है। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री