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320 :: मूकमाटी-मीमांसा
मिट्टी खोदते समय एक काँटे के माथे पर लग जाती है और उसका सिर फट जाने के कारण वह प्रतिशोध लेना चाहता है। तब कुम्भकार को अपनी असावधानी पर अत्यधिक ग्लानि होती है तथा उस समय उसके मन में भावधारा उमड़ पड़ती है। उदाहरणार्थ :
“बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी/लहलहाते नहीं। ...बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो शोध कहलाता है ।।...फूल से नहीं, फल से
तृप्ति का अनुभव होता है ।" (पृ. १०६-१०७) आचार्यजी ने तीसरे खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में स्पष्ट किया है कि मन, वचन एवं शरीर की निर्मलता, लोककल्याण-कामना और शुभ कार्यों के सम्पादन से पुण्य प्राप्त होता है किन्तु क्रोध, मान, माया, मोह एवं लोभ से पाप फलित होता है। मनुष्य विकारों को त्याग कर, मन पर अधिकार रख कर जब नि:स्वार्थ भाव को प्राप्त करता है, स्व को भूलकर पर के लिए जीवन समर्पित करता हैं, तब ही वह पुण्य प्राप्त करता है। परमार्थ के लिए त्यागभाव से लिप्त अर्जन सार्थक होता है तथा पुण्य के घट को भरता है। मोहवश संग्रह और लालसा ही पाप का आधार है। कवि ने संकेत किया है कि जब मेघमण्डल ने मुक्ता वृष्टि की तब राजा ने अपने सेवकों को मुक्ताराशि को बोरियों में भरने का आदेश दिया। किन्तु गगन में गुरु गम्भीर-गर्जना हुई- 'अनर्थ 'अनर्थ 'अनर्थ"। पाप''पाप।' राजा उस मुक्ता-राशि का अधिकारी नहीं बन सका । कुम्भकार ने वह मुक्ता-राशि राजा को समर्पित की। यहाँ कुम्भकार राजा से भी महान् है अपनी मोह-त्याग और परमार्थ की भावना के कारण। इस खण्ड में भाव-गाम्भीर्य के साथ-साथ अलंकृत शब्दावली के भी दर्शन होते हैं, उदाहरणार्थ :
“सुकृत की सुषमा-सुरभि को/तूंघना नहीं चाहते भूलकर भी, विषयों के रसिक बने हैं/कषाय-कृषि के कृषक बने हैं
जल-धर नाम इनका सार्थक है ।" (पृ.२२९) अन्तिम चतुर्थ खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' नामक है । इसका फलक अत्यन्त विस्तृत है तथा इसमें कथा-प्रसंग भी अधिक हैं। तत्त्वचिन्तन की दृष्टि से इस सर्ग का महत्त्व अधिक है। जीवन के सभी अंग को समेटते हुए प्राणियों को अमूल्य शिक्षा की गागर इस सर्ग में है। कथा के कारण रोचकता, तत्त्व-चिन्तन के कारण गम्भीरता, शब्द-चयन और काव्यकौशल से सरसता का निर्माण हुआ है । कुम्भकार ने घट तैयार कर उसे अवा में तपाना चाहा, तब अपरिपक्व कुम्भ ने अग्नि से अनुरोध किया कि वह उसके दोषों को ही जलाए किन्तु उसे जीवित रखे । आचार्यजी की इस सूझ में कितना बड़ा सत्य और सन्देश है कि शक्तिवान्, प्रबल की शक्ति की महानता इसमें है कि वह दुर्बल या विकारी के अस्तित्व को नहीं, दुर्बलता और विकारों को मिटा कर एक मंगलकारी अस्तित्व को प्रस्तुत करे । व्यक्ति को नहीं, उसके दोषों को मिटा कर धरा पर एक सज्जन की संख्या बढ़ाए । अवा में कई दिनों तक तपने के बाद उस कुम्भ को बाहर निकाल कर कुम्भकार ने हर्षपूर्वक श्रद्धालु नगर सेठ के सेवक को कुम्भ देकर अनुरोध किया कि इसमें भरे जल से गुरु का पाद-प्रक्षालन हो । इस खण्ड में लघु को बड़े से महत्त्वपूर्ण दर्शाते हुए स्पष्ट किया गया है साधु और मच्छर के माध्यम से । आहारदान की प्रक्रिया का विवरण देते हुए स्पष्ट किया है कि सेठ बन्धन मुक्त नहीं हो सका और उसे एक मच्छर के माध्यम से सामाजिक दायित्व का बोध हुआ तथा सेठ पुनः गुरु की शरण में गया। गुरु ज्ञान ही जीवन-उद्धार करता है । गुरु की कृपा से ज्ञात हुआ कि पुरुषार्थ से ही आत्मा का उद्धार सम्भव है । साधना आस्थापूर्वक हो तब