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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 313 घनी अलिगुण-हनी/शनि की खनी-सी" भय-मद अघ की जनी दुगुणी हो आई रात है।/आखिर अखर रहा है/यह शिशिर सबको।” (पृ. ९१) इन पंक्तियों में कवि की भाषा का प्रतिनिधि रूप भी दिखाई देता है । एक ओर तो वह महि, महिमा, हिम, अलिगुण, शनि, अघ जैसे तत्सम शब्दों का प्रयोग करता दिखाई देता है, दूसरी ओर वह द्विगुणित का तद्भव रूप 'दुगुणी' का प्रयोग करता है और तीसरी ओर 'आख़िर' और 'अखर' जैसे अरबी शब्दों का प्रयोग अभीत भाव से कर रहा है। कुल मिलाकर भाषा प्रयोग में कवि को आभिजात्य की नहीं, जन की चिन्ता है, अतएव उसकी भाषा बोलचाल के निकट मिश्रित ही कही जा सकती है जो प्रेषणीयता के निकष पर खरी उतरती है। इस खण्ड में कवि ने जैन दर्शन के 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' को परिभाषित करते हुए कहा है : "आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है, जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और/है यानी चिर-सत्/यही सत्य है यही तथ्य"!" (पृ. १८५) सूत्रों की भाषा को सहज, सरल जनभाषा में अभिव्यक्ति दे पाना कलाकार की रचनात्मक श्रेष्ठता की अभिज्ञापक है। 'मकमाटी' के तृतीय खण्ड में रचनाकार ने उन आयामों का उल्लेख किया है जिनके अनुपालन से पुण्य का उपार्जन होता है और जिनमें -क्रोध, मान, माया, लोभ आदि में- आसक्ति से पाप संचित होता है । वस्तुत: इस खण्ड में माटी की विकास कथा के फलक पर पुण्य कर्म के सम्पादन से व्युत्पन्न स्पृहणीय उपलब्धि का अंकन किया गया है। चतुर्थ खण्ड में कुम्भकार द्वारा संस्कारित माटी को घटाकार दिया जाकर आँवे की आँच में दीक्षित करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को काव्यबद्ध किया गया है। लघु का विराट् में परिवर्तन का उपक्रम है चतुर्थ खण्ड । फलत: फलक का विस्तार, कथा प्रसंगों का वैविध्य उसकी रोचकता और चिन्तनगत उदात्तता को बढ़ा देते हैं। बात में बात की नूतन उद्भावना, तत्त्व चिन्तन के गिरिमेरु, जिज्ञासा और शोध के परिणामों की चाकचिक्य, निर्जीव पूजन सामग्री में चेतना का अवतरण और वार्तालाप की प्रक्रिया-कथानक में नाटकीयता का सन्निवेश आदि का अजायबघर है यह खण्ड। रचनाकार का सन्त हृदय और मस्तिष्क बहुत कुछ कह जाने और समझा देने के प्रयास में पूर्वापर तालमेल बनाए रखने में गड़बड़ा जाता है। समीक्षक के लिए यह स्थिति दुर्लघ्य नहीं तो असुविधाकर तो है ही और पाठक के लिए कदाचित् अबूझ। 'मूकमाटी' में अध्यात्म, दर्शन, सन्त आचरण आदि ही व्याख्यायित नहीं हुए हैं अपितु अधुना जीवन की आतंकवाद जैसी समस्या को भी उठाया गया है, जिसका निदान हृदय परिवर्तन जैसी पारम्परिक विधि से सुझाया गया है। हाँ, इतना अवश्य है कि अभिधा शैली में निदान नहीं हैं, वे हैं लाक्षणिकता और व्यंग्यार्थ के फलक पर! विद्यासागरजी की इस कृति में ज्ञान मार्ग, योग मार्ग प्रभृति की शब्दावली का तो पदे-पदे प्रयोग है- अष्टादश दोष, नासाग्र दृष्टि, कायोत्सर्ग, सप्तभय आदि । किन्तु इच्छानुसार शब्द रचना का आग्रह भी उनमें दिखाई देता है'मूकमाटी' के पृष्ठ ३२८ पर प्रयुक्त 'वैकारिक' शब्द (विकारग्रस्त) के लिए, पृष्ठ ३२९ पर सुरभि (सुगन्ध) के बल पर दुरभि (कदाचित् दुर्गन्ध) शब्दों के प्रयोग कहाँ तक स्वीकरणीय होंगे, विचार्य हैं। वैसे 'मूकमाटी' सर्वथा संग्रहणीय और सतत चिन्तन-मनन के योग्य उत्तम काव्य कृति है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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