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302 :: मूकमाटी-मीमांसा
0 “भवन-भूत-भविष्य-वेत्ता/भगवद्-बोध में बराबर भास्वत है ।” (पृ. ११६) 0 “कुम्भ के व्यंगात्मक वचनों से/राजा का विशाल भाल/एक साथ
तीन भावों से भावित हुआ-/लज्जा का अनुरंजन, रोष का प्रसारण-आकुंचन,/और/घटना की यथार्थता के विषय में चिन्ता-मिश्रित चिन्तन ।” (पृ. २१८) “कुम्भ के अंग-अंग से/संगीत की तरंग निकल रही है,/और भूमण्डल और नभमण्डल ये/उस गीत में तैर रहे हैं। ...उसके मन में शुभ-भाव का उमड़न/बता रहा है सबको कि, अब ना पतन, उत्पतन"/उत्तरोत्तर उन्नयन-उन्नयन/नूतन भविष्य-शस्य
भाग्य का उघड़न !" (पृ. २९९) 'वैखरी' की व्याख्या अपने आप में महत्त्वपूर्ण है । मध्यमा सर्व-साधारण श्रुति का विषय हो वैखरी कहलाना तथा पात्र के अनुसार अर्थ-भेद के साथ शब्द-भेद को स्पष्ट करते हुए कवि कहते हैं :
“सज्जन-मुख से निकली वाणी/'वै' यानी निश्चय से । 'खरी' यानी सच्ची है,/सुख-सम्पदा की सम्पादिका । मेघ से छूटी जल की धारा/इक्षु का आश्रय पाकर/क्या मिश्री नहीं बनती ? और/दुर्जन-मुख से निकली वाणी/'वै' यानी निश्चय से 'खली' यानी धूर्ता-पापिनी है,/सारहीना विपदा-प्रदायिनी वही मेघ से छूटी जल-धारा/नीम की जड़ में जाकर
क्या कटुता नहीं धरती?" (पृ. ४०३) इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे इस काव्य को 'व्याख्यात्मक कथा काव्य' अथवा 'दर्शन काव्य' स्वीकारना उचित प्रतीत होता है । कथा-विकास सहज एवं स्वाभाविक ढंग से हुआ है तथा प्रत्येक पात्र माटी, कुम्भ, शिल्पी, स्वर्ण कलश, नदी आदि का सम्यक् परिचय पाठक को मिल जाता है । लक्ष्मीचन्द्र जैन ने भूमिका में इस काव्य के नायक-नायिका का प्रश्न रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है : “माटी तो नायिका है ही, कुम्भकार को नायक मान सकते हैं किन्तु यह दृष्टि लौकिक अर्थ में घटित नहीं होती । यहाँ रोमांस यदि है तो आध्यात्मिक प्रकार का है। कितनी प्रतीक्षा रही है माटी को कुम्भकार की, युगों-युगों से, कि वह उद्धार करके अव्यक्त सत्ता में से घट की मंगल-मूर्ति उद्घाटित करेगा। मंगल-घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है जो काव्य के पात्र, भक्त सेठ, की श्रद्धा के आधार हैं।...काव्य के नायक तो यही गुरु हैं किन्तु स्वयं गुरु के लिए अन्तिम नायक हैं अर्हन्त देव : “जो मोह से मुक्त हो जीते हैं/राग-रोष से रीते हैं/जनम-मरण जरा-जीर्णता/जिन्हें छू नहीं सकते अब"/ ... सदा-सर्वथा निश्चिन्त हैं/अष्टादश दोषों से दूर...।" (प्रस्तवन, पृ.VI-VII)।
हमारी दृष्टि में प्रस्तुत काव्य में नायक-नायिका की समस्या इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है- ऐसे 'अध्यात्म 'दर्शन' काव्य में इस प्रकार की चर्चा का कोई अर्थ नहीं होता । सम्पूर्ण काव्य कवि, दार्शनिक कवि, जिन्हें हम संवेदनात्मक ज्ञान का कवि मानते हैं, की अनुभूति, अनुभव, दर्शन तथा अध्यात्म की अवधारणाओं की प्रस्तुति है । जीवन और दर्शन के अनेक प्रश्नों को इस कथा काव्य में सही आधार पर समझाने का सफल प्रयत्न है । कवि की इन