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________________ जीवन और दर्शन की सार्थक अभिव्यक्ति का महाकाव्य - 'मूकमाटी' डॉ. हुकुमचन्द राजपाल आचार्य श्री विद्यासागर विरचित महाकाव्य 'मूकमाटी' को जितनी बार समीक्षा के लिए पढ़ा एक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न रचना प्रतीत हुई । कवि ने एक ऐसे विषय को इसमें संयोजित किया है जो अब तक अछूता रहा है। चार प्रमुख खण्डों में विभाजित ४८८ पृष्ठों का यह महान् काव्य, जिसे हम 'महान् काव्य' अथवा 'दर्शन काव्य' कहना चाहेंगे, कवि की महत्त्वपूर्ण काव्योपलब्धि है । कथ्य एवं प्रस्तुति की दृष्टि से यह काव्य सर्वथा नवीन है। माटी, कुम्भ, नदी, झारी, शिल्पी कुम्भकार, स्वर्णकलश, सेठ आदि के माध्यम से दार्शनिक कवि ने अत्यन्त रोचक एवं व्याख्यात्मक ढंग से इस काव्यकृति के कथ्य को प्रस्तुत किया है। सही अर्थों में माटी मूक है, सब कुछ सहती है पर कवि की दृष्टि में वह महान् है, उसकी गरिमा, वर्चस्व से दृष्टि ओझल होना अपने आपसे धोखा है । कवि की विशिष्टता इस बात में है कि वे प्रत्येक पक्ष को एक सम्यक् आधार प्रदान करते हैं - सायास कुछ भी नहीं । अनुभूत सत्य को सपाट एवं संश्लिष्ट दोनों धरातल पर व्यंजित किया गया है। माटी मूक है पर वह है गुणों की खान ही । वे मानते हैं, यदि माटी के स्वभाव धर्म में अत्यल्पकाल के लिए अन्तर आ जाए तो प्रलय आ जाती है। इसे वे 'विश्व के श्वासों का विश्वास ही समाप्त' से प्रस्तुत करते हैं (पृ. ३६५ ) । कथ्य -! - प्रस्तुति का अपना अन्दाज है । वे मानते हैं : "माटी स्वयं भीगती है दया से / और/औरों को भी भिगोती है । माटी में बोया गया बीज / समुचित अनिल - सलिल पा पोषक तत्त्वों से पुष्ट- पूरित / सहस्र गुणित हो फलता है।” (पृ. ३६५) इसीलिए सभी दृष्टियों से प्रस्तुत काव्य में कवि का मूल प्रतिपाद्य माटी की विशिष्टता प्रतिष्ठापित करना है । माटी से कुम्भ निर्माण की एक लम्बी प्रक्रिया है। माटी को कुम्भ रूप में आते-आते अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं - वह अपना रूप सहज मूक बदलती रहती है तथा उससे निर्मित कुम्भ को पका कर पवित्र कलश की सम्पूर्ण प्रक्रिया को कवि ने सहज भाव विभोरता की स्थिति में मूर्तिमान् किया है । यथास्थान कुम्भ एवं स्वर्ण कलश के वार्तालाप से कुम्भ एवं माटी के महत्त्व को दर्शाया है | यही कारण है कि इसे पढ़ते हुए जहाँ पाठक इससे रसास्वादन करता है, अनुभूति के क्षणों में विचरता है, वहाँ उसे अनेक दार्शनिक व्याख्याओं का बोध होता है। हम इस समस्त पाठन प्रक्रिया को संवेदनात्मक ज्ञान की प्रक्रिया मानते हैं। संवेदना और ज्ञान का मणि - कांचन संयोग है । काव्य के सभी गुणों से युक्त इस कृति में ज्ञान का अद्भुत भण्डार है-संगीत शास्त्र, औषधि विज्ञान, लोकानुभव की सटीक उक्तियाँ, वैज्ञानिकता के धरातल की नवीन अवधारणाएँ, अंक विज्ञान का चमत्कार आदि को इसमें यथास्थान देखा जा सकता है । यही कारण है इसे हम हिन्दी महाकाव्य की परम्परा में नवें दशक की काव्य-परम्परा की विलक्षण कृति मानते हैं । मुक्तछन्द में इतने बड़े फलक पर इसकी रचना अपने आप में एक उपलब्धि है। हाँ, महाकाव्य के स्वीकृत सभी गुणों - तत्त्वों की समाविष्टि का कहींकहीं अभाव होना स्वाभाविक है, पाठकीय संवेदना में भी बाधा आनी सहज है । कारण, आम पाठक यहाँ तक कि तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग भी इन समस्त दार्शनिक अवधारणाओं अथवा प्रस्तुतियों से कहाँ परिचित है । इस महाकाव्य को यदि परम्परित तत्त्वों - गुणों से थोड़ा हट कर विवेचित किया जाए तो इसका सही मूल्यांकन हो सकेगा। यहाँ हम कुछ संकेत ही दे रहे हैं । लक्ष्मीचन्द्र जैन ने अपने 'प्रस्तवन' में इस महाकाव्य की पहचान बड़े मनोयोग एवं सटीक धरातल पर की है ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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